मंगलवार, 22 जून 2010

न्याय का मज़ाक




जीवन एक बहुमुल्य और सब से प्रिय वस्तु है जिसे आज सब से अमूल्य तथा बेकार समझ लिया गया है। दुसरों की जीवन से खेलवाड़ तो सामान्य बात है शर्त है कि धनदौलत और राजनेतिक शक्ति प्राप्त हो, या मंत्रियों का साया उपलब्ध हो, सब से खेदजनक बात यह है कि हमारे देश की सब से अधिक शक्तिशाली संगठन न्यायलय और सी बी आई भी अपने कामों में बहुत प्रभावित होती है। स्वार्थी और लोभी लोग हर जगह मौजूद हैं जो सफैद को काला और काला को सफैद कर देते हैं और पीड़ितों के दुख दर्द, कष्ठ तथा परेशानियों का कोई एहसास नही करते। हमारे महान देश भारत के स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद से लेकर आज तक कड़ोरों न्याय का गला घोंट दिया गया है। जिस के कारण अपराध प्रत्येक दिन बढ़ता जा रहा है और लोगों के जीवन का मूल कुछ भी नहीं, सब से बड़ा रूपय्या है। आज से लग भग 26 वर्ष पहले, दिसंबर 1984 में भोपाल में हुई विश्व की बदतरीन औद्योगिक त्रासदी में 20,000 लोग मारे गये थे और 5,60,000 लोग प्रभावित हुए और उन में से 37,000 लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे। परन्तु 26 वर्ष की लंबी अवधि के बाद जब न्याय आया तो प्रत्येक न्याय प्रेमियों का हृदय रोने लगा और पीड़ितों को कितना दुख हुआ होगा, कल्पना से बाहर,
क्या लाखों लोगों की जीवन से खेलवाड़ करने वालों की सजा दो साल की जेल ? और जेल जाने से पहले जमानत ? क्या यह न्याय के साथ मजाक नही ?
शक्ति के दुर्उपयोग के कारण अपराध बढ रहा है और जनता की जीवन में शांती स्माप्त और भय एवं डर ने जगह बना लिया है।
अभी केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों के परिजनों तथा विकलांग हुए लोगों के लिए मुआवजे की रकम को बढ़ाते हुए मंत्रियों के समूह ने कुछ दिनों पहले 1,500 करोड़ रुपये के पैकेज पर अंतिम फैसला किया है। केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह ने पीड़ितों को राहत तथा उनके पुनर्वास सहित विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श किया था। कहा जाता है कि इस समूह ने करीब 26 वर्ष पहले हुई विश्व की बदतरीन औद्योगिक त्रासदी में मारे गये लोगों के परिजन के लिए 10 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान करने की सिफारिश की है। त्रासदी के दौरान मिथाइल आईसोसाइनेट गैस के रिसाव के कारण स्थायी रूप से विकलांग हुए या फिर गंभीर रूप से बीमार पड़े लोगों को पांच लाख, जबकि आशिक रूप से विकलांग हुए लोगों को तीन लाख रुपये का मुआवजा मिलने की संभावना है।
यदि यह मुआवजा की रकम मृतक परिजनों तथा विकलांग और पीड़ितों के लिए पास हो जाता है तो प्रश्न यह है कि क्या मुआवजा की यह रकम उन्हें सही तरीके मिल जाएगी ? उत्तर आप देंगे।

रविवार, 2 मई 2010

ईसा (यीशु या जीसस) अलैहिस्सलाम की जवीन कथा कुरआन की रोश्नी में

ईसा (यीशु या जीसस) अलैहिस्सलाम ( उन पर अल्लाह की शान्ती हो) को अल्लाह ने कुरआन मजीद में जो स्थान दिया है जो आदर – सम्मान दिया है बिल्कुल वह इसके अधिकार तथा ह़क़्दार हैं और इस बात की पुष्ठी बाइबल भी करता है परन्तु सेक्ड़ों बाइबल का वजूद बाइबल के असुरक्षित होने पर प्रमाणित करता है। लोगों ने अपने स्वाद के लिए पवित्र बाइबल में विभिन्न कालों में परिवर्तन करते रहे। जिस के कारण बाइबल की संख्याँ बढ़ती गई।
आज आप के सामने पवित्र कुरआन के अनुसार ईसा (यीशु ) अलैहिस्सलाम की विशेष्ताओं पर विचार करेंगे।
(1) ईसा (यीशु या जीसस) अलैहिस्सलाम ( उन पर अल्लाह की शान्ती हो) को अल्लाह ने बिना बाप के पैदा किया। अल्लाह का कथन है।
“ और जब फरिश्तों ने कहा ऐ मरयम , अल्लाह तुझे अपने एक आदेश की खुशखबरी देता है, उसका नाम मसीह ईसा बिन मरयम होगा, दुनिया और आखिरत में प्रतिष्ठित होगा, अल्लाह के निकटवर्ती बन्दों में गिना जाएगा, लोगों से पालन में (पैदाईश के बाद ही) भी बात करेगा और बड़ी उम्र को पहुंच कर भी और वह एक नेक व्यक्ति होगा। यह सुनकर मरयम बोली, पालनहार, मुझे बच्चा केसे होगा ? मुझे किसी मर्द ने हाथ तक नही लगाया। उत्तर मिला, ऐसा ही होगा, अल्लाह जो चाहता है पैदा करता है। वह जब किसी काम के करने का फैसला करता है तो कहता है कि, हो जा, और वह हो जाता है। ” ( सूराः आलिइमरान, आयत क्रमांकः47)
(2) आदम और ईसा (यीशु या जीसस) अलैहिमा सलाम (उन दोनों पर अल्लाह की शान्ती हो) के बीच समानता भी है और फर्क यह कि अल्लाह तआला ने आदम को मिट्टी अर्थात बिना माता-पिता के उत्पन किया और ईसा (यीशु या जीसस) को बिना पिता के उत्पन किया।
अल्लाह तआला का कथन है “ अल्लाह के नजदीक ईसा की मिसाल आदम जैसी है कि अल्लाह ने उसे मिट्टी से पैदा किया और आदेश दिया कि हो जा और वह हो गया ” (आले-इमरानः59)
(3) निःसंदेह ईसा (यीशु या जीसस) अलैहिस्सलाम ( उन पर अल्लाह की शान्ती हो) अल्लाह के कलमे और (रूह़) हुक्म से पैदा हुए थे। अल्लाह तआला का कथन है।
“ मरयम का बेटा मसीह ईसा इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का रसूल था और एक आदेश था जो अल्लाह ने मरयम की ओर भेजा और एक आत्मा थी अल्लाह की ओर से (जिसने मरयम के गर्भ में बच्चे का रूपधारण किया) ”(सूराः अन्निसाः 171)
(4) अल्लाह तआला ने ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) को संबोधित करते हुए अपने कृतज्ञा को याद दिलाया जो एहसान अल्लाह ने उन पर तथा उनके माता पर किया था। अल्लाह का कथन है।
“ फिर कल्पना करो उस अवसर की जब अल्लाह कहेगा कि ऐ मरयम के बेटे ईसा, याद कर मेरी उस नेमत को जो मैं ने तुझे और तेरी माँ को प्रदान की थी। मैं ने पवित्र आत्मा से तेरी सहायता की, तू पालने में भी लोगों से बातचीत करता था और बड़ी उम्र को पहुंचकर भी, मैं ने तुझको किताब और गहरी समझ और तौरात और इंजील की शिक्षा दी, तू मेरी अनुमति से मिट्टी का पुतला पंक्षी के रूप का बनाता और उस में फूंकता था और वह मेरी अनुमति से पंक्षी बन जाता था, तू पैदाइशी अंधे और कोढ़ी को मेरे अनुमति से अच्छा करता था, तू मुर्दों को मेरे अनुमति से जिन्दा करता था, फिर जब तू बनी इस्राईल के पास खुली निशानियाँ लेकर पहुँचा और जिन लोगों को सत्य से इन्कार था उन्होंने कहा कि ये निशानियाँ जादुगिरी के सिवा और कुछ नहीं है, तो मैंने ही तुझे उनसे बचाया ” (सूराः अल-माइदाः 110)
(5) जो लोग अल्लाह को छोड़कर ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) की पूजा तथा इबादत करते हैं तो अल्लाह ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) से प्रश्न करेंगे कि तुमने लोगों को अपनी इबादत की ओर निमन्त्रित किया तो ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) इस का इन्कार करेंगे और लोगों को ही दोषी ठहराएंगे। अल्लाह तआला ने पवित्र कुआन में फरमाया, सारांश यह कि जब अल्लाह कहेगा कि, ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या तूने लोगों से कहा था कि अल्लाह के सिवा मुझे और मेरी माँ को भी ईश्वर बना लो, तो वह जवाब में कहेंगे कि, पाक है अल्लाह, मेरा यह काम न था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे अधिकार न था, अगर मैं ने ऐसी बात कही होती तो आप को जरूर मालूम होता, आप जानते हैं जो कुछ मेरे दिल में है और मैं नही जानता जो कुछ आपके दिल में है, आप तो सारी छिपी हकीकतों के ज्ञाता है। ”
(6) ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) ने लोगों को एक अल्लाह (प्रमेश्वर) की पूजा तथा इबादत की ओर निमन्त्रण किया था। पवित्र कुरआन में अल्लाह और ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) के बीच होने वाली बात चीत को इस प्रकार बयान किया गया है।
“ मैं ने उनसे उसके सिवा कुछ नहीं कहा जिसका आपने आदेश दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। मैं उसी समय तक उनका निगराँ था जब तक मैं उनके बीच था। जब आपने मुझे वापस बुला लिया तो आप उनपर निगराँ थे और आप तो सारी ही चीजों पर निगराँ हैं। अब अगर आप उन्हें सजा दें तो वे आपके बन्दें हैं और अगर माफ कर दें तो आप प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी हैं। ”
(सूराः अल-माइदा,119)
(7) ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) ने अपने सन्देष्ठा होनो का एलान किया था और भविष्यवाँणी किया था के मेरे पक्षपात एक सन्देष्ठा आने वाला होगा जिस का नाम “ अहमद ” होगा। ““
और याद करो मरयम के बेटे ईसा की वह बात जो उसने कही थी कि ऐ , इसराइल के बेटों, मैं तुम्हारी ओर अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ, पुष्टि करनेवाला हूँ उस तौरात की जो मुझ से पहले आई हुई मौजूद है, और खुशखबरी देने वाला हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा जिसका नाम अहमद होगा।” ” (सूराः अस-सफ्फ,6)
(8) जब ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) ने अपने अनुयायियों से भय और अधर्म को महसूस किया तो ऐलान किया कि कौन धर्म के लिए मेरी सहायता करेगा ?
गोया कि ईसा (यीशु या जीसस) अलैहि सलाम (उन पर अल्लाह की शान्ती हो) भी मानव और मनुष्य थे जिन्हें सहायक की आवश्यकता थी ताकि धर्म के प्रचार के लिए उनके मददगार और सहयोगी रहे ,
“ जब ईसा ने महसूस किया कि इसराईल की संतान अधर्म और इनकार पर आमादा है तो उसने कहा , कौन अल्लाह के मार्ग में मेरा सहायक होता है ? हवारियों (साथियों) ने उत्तर दिया , हम अल्लाह के सहायक हैं , हम अल्लाह पर ईमान लाए , गवाह रहो कि हम मुस्लिम (अल्लाह के आज्ञाकारी) हैं ” (सूराः आले-इमरानः52)
(9) अल्लाह तआला ने ईसा (अलैहिस सलाम) को खबर दे दिया था कि तुम को हम अपने पास बुलाने वाले हैं और लोगों के षड़यन्त्र से सुरक्षित रखेंगे जैसा कि अल्लाह तआला का कथन है “ जब उसने कहा ऐ, ईसा अब मैं तुझे वापस ले लूंगा और तुझको अपनी ओर उठा लूंगा और जिन्हों तेरा इनकार किया है उनसे ( उनकी संगत से और उनके गंदे वातावरण में उनके साथ रहने से) तुझे पाक कर दूँगा और तेरे अनुयायियों को क़ियामत तक उन लोगों के ऊपर रखूँगा जिन्होंने तेरा इनकार किया है। ” (सूराः आले-इमरानः55)
(10) अल्लाह तआला ने यहुदीयों की आस्था का इनकार किया जो वह कहते हैं कि यीशु (जीसस) को हमने क़त्ल कर दिया और क्रिस्चन के आस्था का भी इनकार किया जो वह कहते हैं कि यीशु (जीसस) लोगों को पापों से मुक्ति देने के लिए अपने आप को बलिदान कर दिया बल्कि इन चिज़ों से ऊंचा और बेहतर आस्था पेश किया जो यीशु (जीसस) के स्थान को प्रमेश्वर के पास बड़ा करता है। अल्लाह तआला का कथन कुरआन शरीफ में है।
“ और वह खुद कहा कि हमने मसीह ईसा (यीशु या जीसस) मरयम के बेटे अल्लाह के रसूल का क़त्ल कर दिया, हालाँकि वास्तव में इन्हों ने न उसकी हत्या की, न सूली पर चढ़ाया बल्कि मामला इनके लिए संदिग्ध कर दिया गया, और जिन लोगों ने इसके विषय में मतभेद किया है वह भी वास्तव में शक में पड़े हुए हैं, उनके पास इस मामले में कोई ज्ञान नहीं हैं, केवल अटकल पर चल रहे हैं, उन्हों ने मसीह को यक़ीनन क़त्ल नहीं किया – बल्कि अल्लाह ने उसको अपनी ओर उठा लिया, अल्लाह ज़बरदस्त त़ाक़त रखने वाला और तत्त्वदर्शी है। ” (सूराः अन्निसाः157- 158)

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

महिलाओं का स्थान



इस्लाम ने महिलाओं को जो अधिकार दिया है, जो आदर–सम्मान किया है पूरी दुनिया वाले उस जैसा दे ,यह तो दूर की बात है, उस के निकट भी नहीं पहुंच सकते बल्कि अपने लोभ तथा स्वाद के कारण दिखाने के लिए कुछ शौर मचाते, सड़क जाम करते और कुछ प्रेस कान्फरेन्स करके महिलाओं के अधिकारों का रोना रोते, और एक दुसरे पर कीचर उछालते और महिला दिवस मना कर खामूश हो जाते हैं और कुच्छ खबर रिपोरटर भी कुच्छ सुनी सुनाइ बात या समाज में भैली हुई खराबी को देख कर एक लम्बा चौरा आरटिकल लिख देते हैं और इस्लाम पर आरोपों की लाइन लगा देते हैं और अपनी बेवक़ुफी को सब पर प्रकट करते हैं।
इस्लामिक धर्मग्रंथों में महिलाओं और पुरुषों के बीच कोई अन्तर नही बल्कि प्राकृतिक शारीरिक बनावट के अनुसार कुच्छ वस्तु को पुरुषों के लिए वर्जित किया गया हैं। तो कुच्छ वस्तु को महिलाओं के लिए वर्जित किया गया हैं और महिलाओं को जीवन के प्रत्येक मोड़ पर एक सुन्दर स्थान दी गई है जो उस के आदर तथा सम्मान को अधिक अच्छा करता हैं।
निः संदेह महिला का एक महान स्थान है और इस्लाम ने उसे उसके योग्य स्थान पर स्थापित किया है और जीवन के हर मोड़ पर एक सुरक्षक दिया है जो उस की देख भाल करे और महिला को सम्मान किया है और उसके कल्याण के लिए उसके पुरूष संबंधी पर जिम्मेदारी डाल दिया है जो जीवन के हर मरहले पर उसके आवश्यकता को पूरा करे।
मानव पर ईश्वर के बाद सब से अधिकतम अधिकार माता का है जिसे इस्लाम ने विभिन्न तरीके से प्रमाणित किया है और मानव जीवन में सब से महत्वपूर्ण समय को याद दिलाया है। “ और हम्ने इन्सानें को उस के माता पिता के सम्बन्ध में आज्ञा दी है कि उस की माता ने कष्टों पर कष्ट उठा कर उसे गर्भ में रखा तथा उसकी दूध छुड़ायी दो वर्षों में है । कि तुम मेरी तथा अपने माता-पिता की कृतज्ञता व्यक्त कर , मेरी ही ओर लौटकर आना है।” ( सुरः लुक्मान, 14)
और प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया जैसा कि अबू हुरैरा ( रज़ी अल्लाहु अन्हु) वर्णन करते हैं कि " एक आदमी रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल! कौन मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है ? तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप। " (सह़ीह़ुल बुखारीः ह़दीस संखियां- 113508)
इसी तरह इस्लाम ने स्त्री को आदर- सम्मान दिया जब वह पत्नी हो, यदि नापसन्द हो तो भी उसे अपने पास रखे अल्लाह ने उस में दुसरी बहुत सी भलाई उत्पन की है जैसा कि अल्लाह तआला का कथन है। “ उनके साथ भले ढंग से रहो, सहो अगर वे तुम्हें पसन्द न हों तो होसकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो ” ( सूरः निसा, 19)
प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगो को उभारा कि वह अपने पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार करे, फरमाने रसूल है।
“ तुम में सब से बेहतर व्यक्ति वह है जो अपने पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार करे और मैं अपने पत्नियों के साथ अच्छा सुलूक करता हूँ।”
और फरमाया “ दुनिया एक अच्छी चीज़ है और दुनिया की सब से अच्छी चीज़ नेक महिला है ” ( सही मुस्लिम ,हदीसः क्रमाक,1467 )
इसी तरह इस्लाम ने बेटी की हालत में स्त्री को आदर- सम्मान दिया है और उसकी पालन-पोशन और शिक्षा-दिक्षा का अच्छा व्यवस्था करने की आज्ञा दी है। प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लेगों को बेटी की उत्तम तरबीयत पर उभारा है और फरमाया “ जिसने दो बालिकाओं की अच्छी तरह से पालन पोशन किया यहाँ तक कि वह दोनों जवान हो जोए तो मैं और वह व्यक्ति क़ियामत के दिन एक साथ होंगे ” ( सही मुस्लिम, हदीस न, 2631)
कितना ही खुश किस्मत होगा वह व्यक्ति जिसे प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का साथ नसीब हो, और जिसे प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का साथ नसीब होगा वह निश्चित तौर पर जन्नत में जायेगा।
और प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया “ जिस के पास बालिका हैं और उसने उन बालिकाओं का अच्छा व्यवहार तथा पालन पोशन किया तो यह बालिकायें उस के लिए जहन्नम ( नरक) से मुक्ति का कारण बनेगी ” ( सही मुस्लिम, हदीस न, 2629)
इसी तरह इस्लाम ने बहिन की हालत में स्त्री को आदर- सम्मान दिया है प्रिय रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है। “ जिस किसी के पास तीन बेटियाँ या तीन बहिनें हों और उस ने उन के साथ अच्छा व्यवहार तथा पालन पोशन किया तो वह निश्चित तौर पर जन्नत ( सवर्ग) में प्रवेश करेगा ” ( मुस्नद अहमद, 43/3)
इसी तरह इस्लाम ने महिला को आदर- सम्मान दिया है जबकि वह विद्घवा हो , और उसकी खबर गीरी की जाए, उस के जीवन यापन के लिए आर्थिक सहायता की जाए बिना किसी संबंध के और संसारिक लोभ तथा स्वाद के बल्कि इस सहायता का बदला अल्लाह के पास प्राप्त करने का लक्ष्य हो, जैसा कि प्रिय रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है। जिसे अबू हुरैरा (रज़ी अल्लाहु अन्हु) वर्णन करते है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा “ विद्धवा और फक़ीर पर रूपिया खर्च करने वाला और उन की देख भाल करने वाला अल्लाह के रास्ते में दिलों जान से लगे रहने वाले की तरह है, और (एक दुसरी रिवायत में है) हमेशा नमाज़ पढ़ने वाले और हमेशा रोज़ा रखने वाले के सवाब (पुण्य) के बराबर उसे सवाब (पुण्य) मिलेगा । " (सह़ी बुखारीः ह़दीस संख्यां- 6007)
इसी तरह इस्लाम ने महिला को आदर- सम्मान दिया है जबकि वह मौसी (माँ की बहिन) हो, जिसे बरा बिन आज़िब (रज़ी अल्लाहु अन्हु) वर्णन करते है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा “ मौसी माता के स्थान पर होती हैं । ” (सह़ी बुखारीः ह़दीस संख्यां- 4251)
यह तो कुछ उदाहरण दिया हूँ किन्तु इस्लाम ने महिला को बहुत ही ऊंचे पद पर बैठाया है जो उसके शारीरिक तथा मांसिक और प्राकृतिक बनावट के अनुकूल है

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एसे थे


मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कुछ विशेष्ता तथा गुण

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म दिन 9 रबीउल अव्वल आमुल फील का पहला वर्ष है जो कि ईसवी वर्ष के अनुसार 22 अप्रील 571 है। जैसा कि इतिहासिक विद्वानों ने प्रामाणित किया है। मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस्लाम के प्रचार में बहुत कष्ट उठाया। विरोधी लोगों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमक को शारीरिक और मान्सिक टार्चर किया परन्तु आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हर प्रकार की यातनाओं को झेलते हुए अच्छे आचार, शिक्षा, सदाचार तथा व्यवहार को फैलाते रहे। ईश्वर के संदेश और आज्ञा को लोगों तक पहुंचाते रहे और इस रास्ते में आने वाली परिशानियों पर सब्र करते रहे। यहां तक कि ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 23 वर्ष की कम अविधि में ही ईश्वर के संदेश को पुरे अरब द्विप में फैला दिया। एसे महापुरूष जो स्वयं भुके रहके दुसरों को खिलाते रहे। उन के जीवन कथा के अन्गिनित पहलु में कुच्छ बातें आप के साम्ने रखता हूँ और ईश्वर से प्रार्थाना करता हूँ कि अल्लाह हमें और आप को मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तरीके के अनुसार चलने की शक्ति प्रदान करे।


मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भेंट के समय सब से पहले सलाम करते।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हर समय अल्लाह का नाम लिया करते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सब लोगों से अधिक दान शील थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सब लोगों से अधिक बहादुर थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसी स्थान पर बैठ जाते जहाँ जगह मिल जाती।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम झूट से घृणा करते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दुनिया की सामग्री से अरूचि रखते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम चटाई पर सोते और थोड़ी वस्तु पर गुज़ारा करते और उनका तक्या खोजूर के रेशे से बनाया गया था।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम गरिबों के साथ उठा बैठा करते।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कुंवारी लड़की से अधिक लज्जा करते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कभी कोई चीज़ मांगी गई तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इन्कार नहीं किया।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जाहिल (मुर्ख) को क्षमा कर देते और पीड़ा पर सब्र करते ।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बात करने वालों की ओर पूरा ध्यान देते हुए मुस्कुराते और प्रेम से उसका हाथ पकड़े रहते यहाँ तक स्वयं वह छोड़ दोता।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बात करने वालों की ओर पूरी तरह मोतवज्जा होते यहाँ तक कि वह समझता कि वह उनके पास सब से प्रिय है।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नापसन्द करते कि कोइ उस के लिए खड़ा हो, जैसा कि मना करते कि उनकी प्रशंसा में निश्चित सिमा को पार किया जाए।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब किसी वस्तु को नापसन्द करते तो उन्के चेहरे से पता चल जाता।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सिवाए अल्लाह के पद में अपने हाथ से किसी को तक्लिफ न पहुंचाया ।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को वह कार्य (पुण्य) सब से अधिक प्रिय था जो निरंतरता से किया जाए यदि वह कम ही क्यों न हो,

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लोगों को हल्की नमाज पढ़ाते थे और स्वयं नमाज़ बहुत लम्बी पढ़ते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सोते समय अपने दांये हाथ को दांये गाल के निचे रखते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जब भी शुभ खबर प्राप्त होती तो अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए सज्दा करते थे।
मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब किसी समुदाय से डरते तो अल्लाह से प्रार्थाना करते " ऐ अल्लाह, हम तुझ ही को उन के मुकाबले में करते हैं और उनकी शड़यंत्र से तेरी शरण में आते हैं।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब प्रिय वस्तु देखते तो कहते थे, सम्पूर्ण प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जिस के दया से अच्छी चीज़ होती हैं और जब अप्रिय वस्तु देखते तो कहते, हर हाल में सम्पूर्ण प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने लिए पहले दुआ करते फिर दुसरों के लिए दुआ करते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब फजर की दो रकअत सुन्नत पढ़ लेते तो दांये करवट थोड़ासा लेटते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब शव को दफना देते तो वहां खड़ा होते और कहते " अपने भाइ के लिए प्रार्थाना करो कि अल्लाह उसे क्षमा कर दे और उसे सही उत्तर देने की शक्ति प्रदान करे, क्योंकि अभी उस से प्रश्न किया जाएगा।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सोते समय दातौन अपने माथे के नीचे ही रखते और जब भी आंख खुलती तो दातौन करते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कभी भी किसी वस्तु में नक्स न निकाला।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कभी भी किसी भोजन में नक्स न निकाला। यदि इच्छा हुइ तो खाते थे , नही तो छोड़ देते,

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपनी तीन उंगलियों से खाते और हाथ पोंछ्ने से पहले उसे चाट लेते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपनी शक्ति के अनुसार दांये ओर से आरम्भ करने को पसन्द करते थे। चाहे पवित्रता हो, या जूता – चप्पल पहनने में या अपने हर कार्य में,

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सुर्य के निकल्ने के कुछ समय के बाद चार रकअत नमाज़ पढ़ते और कभी जितना अल्लाह चाहे ज़्यादा पढ़ते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सोमवार और गुरूवार को रोज़ा रखने का खास खयाल करते थे।

मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उत्तम, महान सद्व्यवहार के होते हुए भी अल्लाह से प्रार्थना करते थे कि अल्लाह उन्के सदाचार को अच्छा बनाऐ, और बुरे व्यवहार से अल्लाह की शरण लेते थे। एसे महान व्यक्ति मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर अन्गिनित दरूदु सलाम हो,

आइशा (रज़ी अल्लाहु अन्हा) वर्णन करती हैं कि सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दुआ करते थे " ऐ अल्लाह तू ने मुझे रूपवान बनाया है उसी तरह मेरे व्यवहार को सुन्दर तथा अच्छा कर दे।

अबू हुरैरो (रज़ी अल्लाहु अन्हु) वर्णन करते हैं कि सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दुआ करते थे " ऐ अल्लाह मैं तेरे शरण में आता हूँ, बुरे व्यवहार से ,धर्म भ्रष्ट से, और असभ्य (बदबख्ती) से

यही वह उत्तम शिक्षा और आदर्श जीवन कथा है जो हमारे लिए अनुकरणीय है और यही हमारे लिए मोक्षीय है, और अल्लाह तआला ने हमें रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आज्ञा पालन का हुक्म दिया है।

अल्लाह तआला का कथन है," और जो लोग अल्लाह और रसूल के आज्ञा का पालन करेंगे वह उन लोगों के साथ होंगे जिन पर अल्लाह ने इनाम फरमाया है अर्थात नबी , सच्चे लोग, और शहीदों और अच्छे लोग , कैसे अच्छे हैं यह साथी जो किसी को प्राप्त हों "। (सूरःनिसाः70)

अल्लाह तआला का कथन है," वास्तव में तुम लोगों के लिए अल्लाह के रसूल में एक उत्तम आदर्श था प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह और अन्तिम दिन की आशा रखता हो, और अल्लाह को ज़्यादा याद करे "। ( सूराः अहज़ाबः २१)
तो वास्तविक मोमिन वह व्यक्ति है जो प्रिय रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पूर्ण रूप से जीवन के हर मोड़ पर अनुकरण करे और उनके सुन्नत पर हर तरह से अमल करे ।
अल्लाह से दुआ करता हूँ कि हमें और आप को मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तरीके के अनुसार अनुकरण की शक्ति प्रदान करे। आमीन

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस और देशवासियों को हमारी शुभ कामनाऐ










आज 26/01/2010 गणतंत्र दिवस है जिस के समारोह कार्यक्रम में देश की सैन्य ताकत, समृद्धि और सांस्कृतिक विविधता का नज़ारा देखने को मिला और यह हमारा हक है कि हम अपनी ताकत और शक्ति का प्रदर्शन करे, अपनी संस्कृति-रीती- रवाज से दुनिया को परिचय करवाए और प्राचीन-समृद्ध संस्कृति और सभ्यता से खुद को जोड़े रखते हुए विश्व शक्ति के उच्च स्थान पर ब्राजमान हो, यही हमारी खाहिश और ईश्वर से दुआ भी
आजादी के बाद जिन लोगों को सत्ता मिली वे स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े ऊंचे आदर्शो और मूल्यों वाले नेता थे। उनके नेतृत्व में देश के विकास के लिए कई बुनियादी कार्य किए गए, लेकिन दूसरी पीढ़ी के नेताओं और उस के बाद के नेताओं के हाथ में सत्ता आते ही मूल्यों और आदर्शो के उल्लंघन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जारी है और बिते समय के साथ अधिक से अधिकतम हो रहा है।
हमारे ऊंचे आदर्शो और मूल्यों वाले नेताओं ने जो अनूठा संविधान का निर्माण किया और जो उनका सपना था उस की एक झलक आप को दिखाता हूँ,
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक बार संविधान सभा में कहा था कि " मैं आशा करता हूं कि जो संविधान सभा बनाने जा रही है, वह भूखों को रोटी, वस्त्रहीनों को वस्त्र और बेघरों को छत देगा। अगर संविधान यह सब कुछ न कर सका तो मेरे लिए वह कागज के टुकड़े से अधिक कुछ नहीं होगा। "
डा. अंबेडकर ने इस संविधान के प्रति एक बार कहा कि " लोग कहते हैं कि मैं इस संविधान का जनक हूं। यह बिल्कुल गलत है। मैंने वह लिखा, जो मुझे लिखने के लिए कहा गया। अगर मुझे अवसर मिले तो मैं पहला व्यक्ति हूंगा, जो इस संविधान को जला दूं। यह अच्छा नहीं है और किसी के काम का नहीं है। बाद में जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि हमने मंदिर तो अच्छा बनाया था, लेकिन अगर उसमें भगवान की मूर्ति रखने के बजाय राक्षस की मूर्ति स्थापित कर दी गई हो तो मैं और क्या कह सकता हूं "
संविधान प्रारूप समिति के सदस्य मोहम्मद सादुल्ला ने एक बार कहा।
" मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा या खराब क्यों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकलें तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान कितना भी खराब क्यों न हो, अगर इसे अमल में लाने वाले अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा "
भारतीय संविधान में सभी को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनेतिक न्याय देने का वचन दिया गया है, लेकिन राजनीतिक सत्ता अब घटनाओं, प्रक्रियाओं, संसाधनों और अधिकारियों के व्यवहार को सार्वजनिक हित में प्रभावित करने और लोगों को न्याय देने का माध्यम नहीं रह गई है। इसकी जगह राजनीतिक सत्ता का उद्देश्य निजी स्वार्थो की पूर्ति और सार्वजनिक धन के बेजा इस्तेमाल, विशेषाधिकार, संरक्षण, तानाशाही और विरोधी विचारधारा के लोगों को परेशान करना या जनता को परेशान करना हो गया है।
अपराधी और माफिया तत्व, जिनके हाथ खून से रंगे हुए हैं, विभिन्न दलों में प्रवेश करके माननीय बन गए हैं। राजनेता भी अब जनता से दूर कमाडो के घेरे में रहने लगे हैं। बेईमान लोगों ने राज्य की शक्तियों को येन केन प्रकारेण हस्तगत कर लिया है और वे अपने निजी स्वार्थो को पूरा करने में लगे हैंसत्ता का दुरूपयोग करते हैं। हमारी राज्य व्यवस्था अपनी जनता को पानी, बिजली के साथ-साथ रोजी रोटी मुहैया कराने में विफल हो रही है परन्तु उनके बैंक बाइलेंस में इतना पैसा होता कि दो चार वंश बिना किसी चिंता के मैज मस्ती कर सकती है।
दुखद आश्चर्य यह है कि भ्रष्टाचार में संलिप्त लोग अब शर्मसार नहीं होते बल्कि सीना ठोक कर चलते हैं और पैसा तथा राजनेतिक शक्ति के बल बुते झूट को सत्य और सत्य को झूट प्रामाणित कर देते हैं। चाहे वह आर्थिक घोटाला हो, या बलत्कार या मडर कैस हो,
जनता को केवल पानी, बिजली के साथ-साथ रोजी रोटी और शान्ती चाहिये परन्तु हमार राजनेतिक दल इसे प्राप्त कराने में पुरी तरह विफल हैं ।
अल्लाह से बिन्ती करता हूँ कि अल्लाह हमें और हमारे देशवासियो के समस्या का समाधान करे और अच्छी जीवन दे जो परिशानियों से मुक्त हो,

बुधवार, 30 सितंबर 2009

औरत का स्थान

नारी पर प्रतिकाल में अत्याचार हुआ है। यूनानियों ने उसे शैतान की बेटी, सुक्रात ने उसे हर प्रकार के उपद्रव की मुख्य, अफ्लातून ने बुरे लोगों की प्राण , अरस्तू उसे अवनति का कारण कहा है। अरब वासी लज्जा के भय से उसे जीवित धर्ती में गार देते थे। और हमारे अपने भारत में सै साल पहले औरत को उस के पति के मृत्यु के बाद पति के साथ जिन्दा जला देते थे। परन्तु इस्लाम ने चौदह सौ साल पहले उसे बहुत ही ऊंचा स्थान दीया, बहुत आदर-सम्मान दिया। मर्द और औरत को एक ही स्थान पर रखा, और लोगों को ज्ञान दिया कि औरत और पुरूष्य दोनों एक ही तत्व से पैदा किए गए हैं, दोनों के जीवन का कुच्छ लक्ष्य हैं। सब से पहला उद्देश्य यह कि मानव जाति के सिलसिले को क़ायम रखना। पवित्र कुरआन की इस आयत को धयानपुर्वक पढ़े। " लोगो , अपने पालनहार की अवज्ञा से बचो, जिसने तुम्हें एक जात से पैदा किया और उसी से उस का जोड़ा बनाया। फिर उन दोनों से बहुत से मर्द और औरत दुनिया में फैला दिए।"
कुरआन मजीद की इस आयत में स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि मर्द तथा स्त्री दोनों एक ही तरह के दो जीव हैं और दोनों जीवों की रचना का उद्देश्य मानव-जाति को बढ़ाना और उसके सिलसिले को क़ायम रखना है।
इस रचना का दुसरा उद्देश्य भी बताया गया है। धयानपुर्वक से अल्लाह ताला के कथन को पढ़े। " वही है जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी से उस का जोड़ा बनाया ताकि उसके पास सुकून हासिल करे "
इन दोनों आयतों पर विचार करें तो मालूम होगा कि मर्द और औरत को एक ही स्थान पर रखा गया है
इसलाम ही एक मात्र धर्म है जिस ने हर मानव को उस का सही स्थान दिया है जो उस के प्राकृतिक जन्म से मेल खाता है। उसे वह अधिकार दिया जो उस के शारीरिक एंव मान्सिक शक्ती के अनुसार है। औरत प्राकृतिक और शारीरिक शक्ति के अनुसार कमज़ोर है इसी लिए जीवन के हर पराव में एक रक्षक दिया। जब बालिका हो तो बाप और बड़ा भाई उसकी एजूकेशन,खान-पान की व्यवस्था करे, उसकी हर तरह से रक्षा करे, उस से प्रेम करे, लड़का तथा लड़की में कोई अन्तर न रखे और जब बालिका बड़ी हो जाऐ तो उचित लड़के से विवाह कर दे। अब पति पर सरी ज़िमेदारी होगी कि अपनी शक्ति के अनुसार उसे अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनाए , अच्छा खाना खिलाए और उसकी रक्षा करे,उसके साथ अच्छा व्यवहार करे और यह एहसान नहीं बल्कि पत्नी का पति पर अधिकार है यदि कोई पति अपनी पत्नी की जिमेदारी को सही ढंग से अदा नही करता तो वह अल्लाह के पास पापी होगा। जब औरत माता श्री होजाए तो बच्चे अपने माता-पिता की आज्ञा करे और माता को पिता पर तीन दरजा ऊंचा स्थान दिया मोहम्मद स0 अ0 स0 के कथन को पढ़े " एक आदमी नबी स0 अ0 स0 के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! कौन मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है ? तो आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप। " (सह़ीह़ुल बुखारीः ह़दीस संखियां- 113508)
जब माता बुढ़ापे को पहुंच जाए तो बेटा जीविका का व्यवस्था करे और उसे किसी बात पर बुरा-भला न कहे और नहीं डांटे-फटकारे बल्कि उनके किसी बात पर " हूँ " तक न कहे । अल्लाह तआला ने मुसलमानों को इसी का आज्ञा दिया है।
" अगर तुम्हारे पास इन में से एक या यह दोनों (माता-पिता) बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जायें तो उनको ऊफ तक न कहना और नहीं उन्हें डाँटना "( सूरः इस्राः23)
एक औरत चाहे वह बेटी हो, या पत्नी या माँ हर हाल में रानी है जिसकी सेवा करना मर्द संबंधी पर अनिवार्य है और इस्लाम के नियमों में कोई भी व्यक्ती संशोधन नही कर सकता है। जो इस्लाम के आज्ञानुसार जीवन गुज़ारेगा,उसे पुण्य प्राप्त होगा और जो इस्लाम के आज्ञा का उलंघन करेगा वह पापी होगा परन्तु कुच्छ लोग अज्ञानता के कारण इस्लाम पर यह आरोप लगाते है कि इस्लाम ने स्त्री को सही स्थान नही दिया है, इस्लाम ने औरतों के साथ भेद-भाव रखा है। इस्लाम ने स्त्री पर अत्याचार किया है। इन सब का (इन शा अल्लाह) अगले महीने विस्तार से उत्तर दुंगा जब तक के लिए अनुमति दिजीये

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

माता-पिता के हुक़ूक़

प्रेम एक विचित्र मनोभाव है। इसी मनोभाव के कारण मनुष्य मुश्किल से मुश्किल काम को सरलतापूर्वक कर ले जाता है। इसी अनुराग के प्रति उन्नति तथा प्रगति के कृत्तिका नक्षत्र को प्राप्त करता है क्यों कि जिस चीज़ से मनुष्य प्रेम करता है उसे अपने प्राण से भी अधिक प्रेम करता है। अपने आप को उस के लिए बलिदान कर देता है। इसी कारण यदि प्रेम अल्लाह से हो तो पूजा बन जाती है यदि प्रेम नबी स0 अ0 व0 स0 से हो तो अनुसरण का प्रकाश बन जाता है। प्रेम माँ-बाप से हो तो अल्लाह की प्रसन्नता का कारण बन जाता है। अल्लाह तआला सर्व मानव से प्रेम करता है। इसी कारण उसने मानव को एक दुसरे से प्रेम करने की आज्ञा दिया है और तमाम मानव के बीच एक दुसरे पर कुछ ह़ुक़ूक़ एंव अधिकार को अनिवार्य किया है जिसे पूरा करना ज़रूरी है। इन हुकूक और वाजबात में सब से पहला और बड़ा हक़ अल्लाह का है और वह यह कि केवल अल्लाह की उपासना तथा उसी की पूजा की जाऐ और उसके साथ किसी को भागीदार न ठहराया जाए।
एक बार प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 ने मआज़ रजि0 से प्रशन किया।
معاذ . قلت : لبيك رسول الله وسعديك ، قال : هل تدري ما حق الله على عباده , قلت : الله ورسوله أعلم ، قال : ( حق الله على عباده أن يعبدوه ولا يشركوا به شيئا) [ صحيح البخاري رقم الحديث) [ صحيح البخاري رقم الحديث: 13512
अर्थ ,,ऐ मआज़ ! , मैं ने कहाः अल्लाह के रसूल हाज़िर हूँ , फरमाईये, आपने कहाः क्या तुम जानते हो कि अल्लाह का अपने दासों पर किया हक़ है ? मैं ने उत्तर दियाः अल्लाह और उस के रसूल अधिक जानते हैं। तो आप ने कहाः अल्लाह का दासों पर हक़ है कि वह केवल अल्लाह की पूजा करें और उस के साथ किसी को उस का साझीदार न बनाऐ ,,
यह तो पहला हक़ हुआ हम पर दुसरा हक प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 का है जिन के शिक्षा के कारण हम ने अपने वास्तविक मालिक को पहचाना है और वह हक यह है कि हम अपने जीवन के हर मोड़ पर प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 के आज्ञा का पालन करें, जिन चीज़ो के करने का हुक्म दिया है वह करें और जिन चीज़ों से रोका है उस से रुक जाएं यही आदेश अल्लाह तआला ने हमें क़ुरआन में दिया है -
" و ما اتاكم الرسول فخذوه و ما نهاكم عنه فانتهوا " [ سورة الحشر:7 ]
अर्थः " और तुम्हें जो कुछ रसूल दें उसे ले लो और जिस से रोकें रूक जोओ "

तीसरे नम्बर पर हम पर हमारे माता पीता के अधिकार प्रचलित होते हैं। जिन के प्रेम तथा मोहब्बत, मेहनत और लगन , उनकी सेवा और स्वार्थ त्याग के कारण ही हमने अपने व्यक्तित्व को परवान चढ़ाया है और अल्लाह तआला के बाद हमारे उत्पन्न का कारण भी वह दोनों हैं, इस लिए अल्लाह तथा उस के रसूल के बाद हम पर अपने माता पिता का बड़ा अधिकार और ह़क़ है। यही वजह है कि अल्लाह ने उन के पद को काफी ऊंचा और बुलंद किया है। अल्लाह तआला फरमाता है –
" و اعبدوا الله و لاتشركوا به شيئا و بالوالدين إحسانا " [النساء : 36 ]
अर्थः" और अल्लाह की इबादत करो और उस के साथ किसी को शरीक़ न करो और माँ-बाप के साथ एहसान करो "
इस आयत पर चिंतन मनन करें कि अल्लाह जल्ल शानहु ने अपनी पूजा और उपासना के साथ माता-पिता के साथ उपकार करने का आज्ञा देकर इनसानों को खबरदार किया कि उनके साथ हर प्रकार की भलाई, प्रेम, स्वार्थ त्याग, कृपा का व्यवहार करो।
अल्लाह तआला माता-पिता के पद, श्रेष्ठा, महानता और सम्मान को बढ़ाते हेतू विभिन्न शैली से मानव को संबोधित करता हैं जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है -
" وإذ أخذنا ميثقاق بني إسرآئيل لاتعبدون إلا الله و بالوالدين إحسانا " [ البفرة:83 ]
अर्थः" और जब हम ने इसराईल के पुत्रों से वचन लिया कि तुम अल्लाह के सेवाय किसी और की इबादत न करना और माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करना "
पवित्र क़ुरआन में अन्य स्थान पर अल्लाह तआला फरमाता है -
" و قضى رّبك ألا تعبدوا إلا إيّاه و بالوالدين إحسانا" [ الإسراء :23]
अर्थः " और तेरा रब खुला हुक्म दे चुका है कि तुम उसके सिवाय किसी दूसरे की अराधना (इबादत) न करना और माता-पिता के साथ अच्छा सुलूक करना "
इसी तरह अल्लाह तआला ने मानव को आज्ञा दिया कि वह माता-पिता के साथ उत्तम उपकार तथा भलाई का बरताव करें जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है।
" ووصينا الإنسان بوالديه إحسانا " [ الأحقاف : 15]
अर्थः " और हमने मानव को ताकीद से आज्ञा दिया कि वह अपने माता-पिता के साथ उपकार करें "
यदि कोई मनुष्य अल्लाह के वसिय्यत को याद कर के माँ-बाप का आदर और उन का सम्मान करते हुऐ उनकी अधीक सेवा करता है तो अल्लाह उन को अच्छा बदला देगा। परन्तु जो मनुष्य अल्लाह के वसिय्यत को भुला कर माँ-बाप के साथ अशुध्द व्यवहार करेगा अल्लाह उस अभागी से सख्त प्रशन करेगा।
अल्लाह तआला के पास बन्दो के कर्मों में से प्रिय कर्म माता-पिता के साथ उत्तम व्यवहार है। अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ि ने प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 से प्रशन किया।
" أي العمل أحب إلى الله ؟ قال : الصلاة على وقتها, قلت ثم أي ؟ قال : بر الوالدين, قلت ثم أي ؟ قال : الجهاد في سبيل الله " [ صحيح البخاري رقم الحديث 117454 ]
अर्थः " कौन सा कर्तव्य अल्लाह के पक्षपात प्रिय है ? आप ने उत्तर दियाः नमाज़ के प्राथमिक समय में नमाज़ पढ़ना , मैं ने कहाः फिर कौन सा ? आप ने उत्तर दियाः माता-पिता के साथ उत्तम व्यवहार करना , मैं ने कहाः फिर कौन सा ? आप ने उत्तर दियाः अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना "
इस्लाम धर्म ने माता-पिता को सर्वश्रेष्ट पद दिया है और उन को इतना ऊंचा और बुलंद वर्ग पर बैठाया है कि अन्य धर्मों में इसका उदाहरण और तुलना नहीं।
इस्लाम ने माँ-बाप के साथ उपकार और अच्छा स्वभाव को अल्लाह की पूजा और आराधना के बाद का दर्जा तथा पद दिया है।

माता-पिता के कुछ अनीवार्यित हुक़ूक़

निःसंदेह माता-पिता का अपने सपूतों पर अनगिनित हुक़ूक़ तथा उपकार है। कोई भी मानव अपने माँ-बाप का हक़ अदा नहीं कर सकता और नहीं उनके कृपा को गिन सकता है परन्तू उनके कुछ अनीवार्यित हुक़ूक़ निम्लिखित शतरों में बयान किया जा रहा है।
(1) माता-पिता के साथ हर हाल में उपकार एंव इहसान करना जैसा कि अल्लाह तआला का आदेश है।
" و وصينا الإنسان بوالديه حسنا " [ سورة العنكبوت:8 ]
अर्थः " और हम ने हर इंसान को अपने माता-पिता से अच्छा सुलूक करने की शिक्षा दी है।"

(2) माता-पिता के आज्ञा का पालन करना जब तक वह आज्ञा प्रमेशवर के आदेश के प्रतिपक्षी और उनके कथन के विरोधी न हो जैसा कि प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 ने फरमाया है।
" لا طاعة لمخلوق في معصية الخالق " [ تاريخ بغداد - رقم الحديث: 36298]
अर्थः " अल्लाह की नाफरमानी में किसी बन्दे की आज्ञाकारी उचित नहीं "
उमर रज़ि0 के किस्सा से माता-पिता की बात मान्ने की महत्वपूर्णता स्पष्ट होती है। उमर फारूक़ रजि0 ने अपने पुत्र अब्दुल्लाह रज़ि0 को कहा कि तुम अपनी स्त्री को तलाक़ दो प्रन्तु वह अपने स्त्री से अधीक प्रेम करते थे उनहो ने तलाक़ देने से इनकार किया फिर उमर फारूक़ रज़ि0 ने नबी स0 अ0 व0 स0 से गिला किया तो आप स0 अ0 व0 स0 ने अब्दुल्लाह रज़ि0 को अपने पिता का कहना मान्ने और स्त्री को तलाक़ देने का आज्ञा दिया फिर अब्दुल्लाह रज़ि0 ने अपनी स्त्री को तलाक़ दे दिया।
(3) अगर माँ-बाप अल्लाह की नाफरमानी , अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य की पूजा , उस के साथ किसी को भागीदार बनाने का आज्ञा दे तो उनके आज्ञा का पालन न करना किन्तु उनके साथ उत्तम व्यवहार के साथ जीवन बिताना जैसा कि अल्लाह तआला का ह़ुक्म है -
وإن جاهداك على أن تشرك بي ما ليس لك به علم فلا تطعهما و صاحبهما في الدنيا معروفا " [سورة لقمان: 14 "]
अर्थः " और अगर वह दोनों इस बात की अंधक कोशिश करें के तुम मेरे साथ शिर्क करो जिस का तेरे पास ज्ञान नही है तो तुम उन दोनों की बात न मानो और संसार में उन के साथ भलाई करते हुऐ जीवन गुज़ारो "
इस आयत की स्पष्टित में सा़द बिन अबील वक्का़स रज़ि0 के इस्लाम लाने का क़िस्सा बहुत ही शिक्षा और नसीहत से भरा है। जब साद रज़ि0 ने इस्लाम स्वीकार किया तो उनकी माँ ने कहाः मैं उस समय तक खाना नही खाऊंगी जब तक तुम इस्लाम छोड़ कर अपने पुर्वज धर्म में लौट न आऔ और उनकी माँ ने खाना-पीना त्याग दिया। साद रज़ि0 ने माँ से कहाः ऐ माता , अगर तेरे पास एक सौ प्राण होती और वह एक एक कर के निकलती तब भी मैं इस्लाम नहीं छोरूंगा। दो दिन की भूक हढताल के बाद अंत में उनकी माँ ने खाना-पीना आरंभ कर दिया।
(4) माँ-बाप की सेवा करना तथा उनका हर प्रकार से धयान रखना अल्लाह के मार्ग मे जिहाद करने से उत्तम औऱ सर्वश्रेष्ट है जैसा कि अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ि0 बयान करते हैं।
جاء رجل إلى النبي صلى الله عليه وسلم يستأذنه في الجهاد . فقال " أحي والداك ؟ " قال : نعم . قال " ففيهما فجاهد " . (صحيح مسلم: رقم الحديث :175940)
अर्थः एक आदमी नबी स0 अ0 व0 स0 के पास अल्लाह के पथ में जिहाद करने के लिए आज्ञा लेने के लिए आया तो आपने प्रशन क्या। क्या तुम्हारे माता-पिता जीवीत हैं ? उसने कहाः जी हाँ, आप ने कहाः तो तम उन दोनों की हृदय की प्रेम के साथ खूब सेवा करो।
(5) माँ-बाप को बुरा-भला न कहना और नहीं डांटना-फटकारना बल्कि उनके किसी बात पर " हूँ " तक न कहना जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है।
" إمّا يبلغنّ عندك الكبر أحدهما أو كلاهما فلا تقل لهما أف ولا تنهر هما" [ الإسراء : 23]
अर्थः " अगर तुम्हारे पास इन में से एक या यह दोनों बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जायें तो उनको ऊफ तक न कहना और नहीं उन्हें डाँटना "
(6) माता-पिता के साथ नीची आवाज़ और इज़्ज़तों एहतेराम से बातचीत करना अच्छी बातचीत एंव आदर तथा सम्मान के अधीक हक़दार हैं। क्यों कि माँ-बाप
अल्लाह तआला ने भी मानव को इसी की ह़ुक्म दिया है -
" و قل لهما قولا كريما " [ الإسراء : 23]
अर्थः " और उनके साथ आदर तथा सम्मान से बातचीत करो "

(7) उनके साथ हर प्रकार से नरमी करना और प्रेम का स्वभाव करना जैसा के अल्लाह तआला का आदेश है।
" واخفض لهما جناح الذل من الرحمة " [ الإسراء : 23]
अर्थः " और नर्मी तथा मुहब्बत के साथ उन के सामने इन्केसारी के हाथ फैलाये रखो "
(8) माता-पिता के लिए अल्लाह से रहमतो-मग़फिरत की दुआ करना , अल्लाह तआ़ला सब लोगों से चाहता है कि लोग अपने लिए , माता-पिता के लिए , सर्व लोगों के लिए अल्लाह से ही दुआ करें और अपने माँ-बाप के लिए बहुत दुआ करें
अल्लाह तआ़ला के इस कथन को खौ़र से पढ़े –
" و قل ربّ ارحمهما كما ربّياني صغيرا " [ الإسراء : 23]
अर्थः " और कहोः ऐ मेरे रब , उन दोनों पर वैसे ही कृपा कर जैसा कि उनहों ने बचपन में हम पर दया और हमारी पालन पोषन किया "।
(9) माता-पिता पर पैसा खर्च करना और उनको जीवन वेयवस्था का सामग्री देना यदि वह मोहताज हो तो अपने पत्नी तथा सपूतों पर उनको तरजीह़ देना जैसा कि प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 के आदेश से प्रमाणित है।
عن عبدالله بن عمرو بن العاص أن أعرابيا أتى النبي صلى الله عليه وسلم فقال إن لي مالا وولدا وإن والدي يريد أن يجتاح مالي قال: " أنت ومالك لأبيك إن أولادكم من أطيب كسبكم فكلوا من كسب أولادكم" [ إرواء الغليل:رقم الحديث 148533 ]
अर्थः अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आ़स रज़ि0 से वर्णन है कि एक देहाती नबी स0 अ0 व0 स0 के पास आया और कहाः बैशक मेरे पास धन-दौलत और बाल-बच्चे हैं। और मेरे पिता मेरा धन-दौलत ले लेते हैं। आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दिया " तुम और तुम्हारी धन-दौलत तुम्हारे पिता की चीज़ है। निःसंदेह संतान तेरी उत्तम कमाई है तो तुम अपने संतान की कमाई खाओ"
नबी स0 अ0 व0 स0 के इस कथन से माता-पिता की सेवा , उन पर अपनी संपती खर्च करने का उपदेश मिलता है। और उन को हर प्रकार से प्रसनन रखने का शिक्षण मिलता है।
(10) यदि माता-पिता पुकारे तो उनकी पुकार पर परस्तुत होना और उनकी जीवन सामग्रियों को पूरा करना यदि नफ्ली नमाज़ पढ़ रहा हो तो उसे छोड़ कर आना जैसा कि हमें जुरैज आ़बि़द के कि़स्से़ से शिक्षण मिलता है।
عن أبي هريرة أنه قال : كان جريج يتعبد في صومعة . فجاءت أمه فقالت : ياجريج ! أنا أمك . كلمني . فصادفته يصلي . فقال : اللهم ! أمي وصلاتي فاختار صلاته . فرجعت ثم عادت في الثانية . فقالت : ياجريج ! أنا أمك . فكلمني . قال : اللهم ! أمي وصلاتي.فاختار صلاته . فقالت : اللهم ! إن هذا جريج . وهو ابني . وإني كلمته فأبى أن يكلمني . اللهم ! فلا تمته حتى تريه المومسات . قال:ولو دعت عليه أن يفتن لفتن . قال :وكان راعي ضأن يأوي إلى ديره قال فخرجت امرأة من القرية فوقع عليهاالراعي فحملت فولدت غلاما فقيل لها : ما هذا ؟ قالت : من صاحب هذا الدير . قال فجاءوا بفؤسهم و مساحيهم فنادوه فصادفوه يصلي . فلم يكلمهم . قال فأخذوا يهدمون ديره . فلما رأى ذلك نزل إليهم . فقالوا له : سل هذه:قال فتبسم ثم مسح رأس الصبي فقال : من أبوك ؟ قال : أبي راعي الضأن . فلما سمعوا ذلك منه قالوا : نبني ما هدمنا من ديرك بالذهب والفضة . قال : لا . ولكن أعيدوه ترابا كما كان . ثم علاه [ صحيح مسلم : رقم الحديث:175942 ]
अर्थः अबू-होरैरा रज़ि0 फरमाते हैं " जुरैज अपने कुट्या में अराधना (इबादत) करता था तो उसकी माँ आई और कहाः ऐ जुरैज ! मैं तुम्हारी माँ हूँ , तुम मुझ से बात करो प्रन्तु वे नमाज़ पढ़ रहे थे तो हृदय में विचार किया, ऐ अल्लाह ,मेरी माँ और नमाज़ फिर वे नमाज़ पढ़ते रहे, और उसकी माता लौट आई फिर दुसरी बार आई और कहा, ऐ जुरैज ! मैं तुम्हारी माता हूँ , तुम मुझ से बात करो प्रन्तु वे नमाज़ पढ़ रहे थे तो हृदय में विचार किया, ऐ अल्लाह, मेरी माता और नमाज़ फिर वे नमाज़ पढ़ते रहे, तो उसकी माँ ने कहा, ऐ अल्लाह जुरैज मेरा पुत्र है और मैं उस से बात करना चाहती हूँ प्रन्तु वे बात करना नहीं चाहता, ऐ अल्लाह उसे संभोगिक स्त्री के समक्ष बिना मृतिव न दे, (रावी कहते हैं) और यदि यौन सम्बंधित की शाप देती तो वे करता ! और एक चड़वाहा उसके कुट्या में आता था। तो एक स्त्री ग्राम से निकली और उन दोनों ने यौन सम्बंध किया और औरत गर्भ से होगई और एक पुत्र जनम दिया। उस से कहा गया कि यह किस का है ? औरत ने उत्तर दियाः यह इस कुटया वाले का है ! लोग अपने कुल्हारी और हथौरों से उसके घर को मुन्हदिम करने लगे फिर वह नीचे उत्तरा तो लोगों ने कहा यह क्या है ? जुरैज हंसा फिर बच्चे के सर पर हाथ फैरा और कहाः तुम्हारा बाप कौन है ? बच्चे ने उत्तर दियाः मेरा बाप चड़वाहा है। तो जब लोगों ने ( जनम हेतू ) बच्चे को बोलते हूऐ सूना तो कहा कि हम आप के घर को सोने-चाँदी से बना देंगे तो उसने उत्तर दियाः नहीं, परन्तु जैसा था वैसा ही बना दो। "
(11) माता-पिता का उपकार मान्ना और उनके प्रति कृतज्ञ दिखाना जैसा कि आकाश-पृथवी के मालिक का आदेश है।
" أن اشكر لي و لوالديك " [ سورة لقمان : 14 ]
अर्थः " तुम मेरे प्रति कृतरज्ञता दिखाओ और माँ-बाप के प्रति कृतज्ञ दिखाओ "
अल्लाह तआला ने मानव को आज्ञा दिया कि तम मेरे उपकारों का शुक्रीया अदा करो और माता-पिता के इहसानों का शुक्रीया अदा करो क्यों कि वास्तव में तुम जितना भी मेरा फिर अपने माँ-बाप का कृतरज्ञता दिखाओगे तब भी वह कम है।
माता का हक़ पिता से अधीक हैं।
इस्लाम ने माँ-बाप का पद बहुत ऊंचा किया है और उन दोनों के प्रति उत्तम सुलूक और उन दोनों का खूब आदर तथा सम्मान करने का आदेश दिया है। प्रन्तु उन दोनों में माता का ह़क़ और अधीकार पिता के समक्ष अधीक दिया है क्यों कि माँ ने बच्चे की देख-भाल में काफी कष्ट झेली है। माँ ने संतान के पालन पोषण में बहुत ज़ियादा तकलीफ बर्दाश्त की है। बाल-बच्चे को हर प्रकार के हर्ष तथा वयाकुलियों से सुरक्षित किया है। माता ने संतान के पालन-पोषण में पिता से अधीक बलिदान प्रत्य्क्ष किया है और बच्चों के लिऐ हर प्रकार का स्वार्थ त्याग दिया है। इस लिऐ इस्लाम ने माँ को अच्छे व्यवहार का ज़ियादा मुस्तह़िक़ क़रार दिया है। जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 के कथन से प्रमाणित है।
جاء رجل إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم فقال: يا رسول الله ، من أحق الناس بحسن صحابتي ؟ قال : ( أمك ) قال : ثم من ؟ قال) : ثم أمك ) قال : ثم من ؟ قال : ( ثم أمك ) قال : ثم من ؟ قال : ( ثم أبوك) [ صحيح البخاري : رقم الحديث : 113508]
अर्थः " एक आदमी रसूलुल्लाह स0 अ0 व0 स0 के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! कौन मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है ? तो आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप। "
माता-पिता के मृत्यु के पश्चात के अधीकार
श्रीमानः यह कुछ ह़ुक़ूक़ और अधीकार हैं जो माता-पिता के जीवन में ही बच्चों पर अनीवार्य होता है किन्तु कुछ वाजबात तथा अधीकार एंव ह़ुक़ूक़ ऐसे भी हैं जो माता-पिता के मृत्यु के पश्चात भी पूरा करना पड़ता है। जैसा कि प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 के आदेश से प्रमाणित है।
عن أبي أسيد الأنصاري رضي الله عنه قال: كنا عند النبي صلى الله عليه وسلم فقال رجل : يا رسول الله هل بقي من بر أبوي شيء بعد موتهما أبرهما قال : نعم ، خصال أربع : الدعاء لهما و الإستغفار لهما ، و إنفاذ عهدهما ، و إكرام صديقهما ، و صلة الرحم التي لا رحم لك إلا من قبلهما " [الأدب المفرد للبخاري ]
अर्थः अबू उसैद अन्सा़री रज़ि0 फरमाते हैं कि हम नबी करीम स0 अ0 व0 स0 के पास थे कि एक आदमी ने कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या मेरे वालिदैन के मरण के पश्चात भी कुछ अच्छा आचार,व्यवहार है जो मैं उन के साथ करू ? आप स0 अ0 व0 स0 ने फरमायाः " हाँ,चार चीज़ें हैं जो उन की मृत्यु के उपरांत भी किया जा सकता है "।

(1) उन दोनों के लिए दुआ करना क्यों कि दुआ मरने के बाद भी लाभ पहुंचाती है जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 के कथन में आया है

"إذا مات الإنسان انقطع عنه عمله إلا من ثلاثة: من صدقة جارية أوعلم ينتفع به أو ولد صالح يدعو له " [صحيح مسلم: رقم الحديث: 89269]
अर्थः " जब मानव मर जाता है तो उन के सारे कर्म ख़त्म हो जाते हैं सवाये तीन कर्म केः हमेशा रहने वाला दान , या, ज्ञान जिस से लाभ उठाया जाऐ , या, नेक पुत्र जो उन के लिए दुआ करे "

(2) इसी प्रकार माता-पिता के लिए अल्लाह से बख्शिश मांगना जैसा कि अल्लाह के नबी नूह़ अलैहिस्सलाम अपने माँ-बाप के लिए अल्लाह से बख्शिश मांगते थे।
"رب اغفر لي و لوالديّ و لمن دخل بيتي مؤمنا و للمؤمنين و المؤمنات " [ سورة نوح:28 ]
अर्थः " ऐ मेरे मालिक , मुझे क्षिमा कर दे और मेरे माता-पिता और मोमिन पुरूषों तथा स्त्रीयों को क्षिमा कर दे "
(3) माता-पिता के वचन तथा प्ररिक्थ को उन के मृत्यु पश्चात पुरा करना यदि उन पर उधार हो तो उसे अदा करना होगा क्यों कि अल्लाह तआला अपने अधीकार और ह़ुक़ूक़ को माफ कर सकता है प्रन्तु मानव का अधीकार व ह़ुक़ूक़ केवल मानव ही माफ करेगा , अल्लाह तआला क्षिमा नहीं करेगा , इसी लिए अन्य मानव के अधीकार एंव ह़ुक़ूक़ को माता-पिता के मृत्यु के बाद संतान पर वापस करना अनीवार्य है।
(4) माँ-बाप के मित्रों और साथियों का आदर - सम्मान करना , उन के संबंधियों और नातेदारों के साथ भी उत्तम सुलूक करना और इन सब को अपने शैली के अनुसार सौगात देना है। जैसा कि इस्लाम का आदेश है।
" أن رجلا من الأعراب لقيه بطريق مكة . فسلم عليه عبدالله . وحمله على حمار كان يركبه . وأعطاه عمامة كانت على رأسه . فقال ابن دينار : فقلنا له : أصلحك الله ! إنهم الأعراب وإنهم يرضون باليسير . فقال عبدالله : إن أبا هذا كان ودا لعمر بن الخطاب وإني سمعت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول " إن أبر البر صلة الولد أهل ود أبيه "[ صحيح مسلم : رقم الحديث :175943]
अर्थः अब्दुल्लाह बिन दीनार कहते हैं कि एक ग्रामीण से भेंट हुई,तो अब्दुल्लाह ने उसे सलाम किया। और जिस गध्हे पर बैठे थे वह उसे दे दिया और अपने सर से पगड़ी उतार कर उसे दे दिया। तो इब्ने दीनार ने कहाः अल्लाह आप का भला करे ! निःसंदेह ये ग्रामिक लोग हैं। और ये थोड़ा प्राप्त कर के परसन्न होते हैं। अब्दुल्लाह ने उत्तर दिया, बैशक इस व्यक्ति का पिता उमर बिन खत़्त़ाब का मित्र था और मैं ने नबी स0 अ0 व0 स0 को फरमाते हेतू सुना है। " निःसंदेह नेकियों में सब से बड़ी नेकी पुत्र का अपने पिता के प्रेमियों के परीवार वालो के साथ अच्छा व्यवहार करना है। "
इस्लाम ही वह महान धर्म है जिस ने प्रति व्यक्ति को उस का मुनासिब स्थान दिया है और इस्लाम ने माता-पिता का जो स्थान एंव पद दिया है अन्य धर्म इस के बहुत पिछे है।

लाभ जो माता-पिता का सेवा करने से प्राप्त होते हैं।
(1) यदि आप पितरौं के साथ भलाई तथा उपकार करते हैं तो मानो आप अल्लाह के आज्ञाकारी के पथ पर गमन करते हैं और जो अल्लाह के पथ पर चलेगा अल्लाह उसे महान परुष्कार देगा।
(2) माता-पिता जिस व्यक्ति से प्रसन्न होंगे तो अल्लाह भी उस व्यक्ति से खुश होगा जैसा कि रसूलुल्लाह स0 अ0 व0 स0 का कथन हैं।
''رضى الله في رضى الوالدين ، وسخط الله في سخط الوالدين" [صحيح ابن حبان: رقم الحديث: 33459]
अर्थः अल्लाह की खुशी माता-पिता की प्रसन्नता में गुप्त है और अल्लाह की अप्रसन्नता माँ-बाप के क्रोध में है।
(3) मितरौ के साथ सवच्छ व्यवहार और उनकी निःस्वार्थ सेवा तथा उनके साथ बेहतरीन सुलूक जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश का सर्टीफिकेट है। जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 ने फरमाया है।
" الوالد أوسط أبواب الجنة ، فإن شئت فأضع ذلك الباب أو احفظه" [ سنن الترمذي: رقم الحديث: 9979]
अर्थः " पिता जन्नत के द्वार में से बीच्ला द्वार है तो तुम इसे सुरक्षित करलो या इसे नष्ट कर दो "
(4) माता-पिता की खूब खिदमत करना औ हर प्रकार से उन को खूश रख कर उन की दुआ लेना और उन के शाप से संयम रहना , उनका आशीरवाद लेना क्यों कि कि माँ-बाप की शाप या दुआ संतान के हक़ में अल्लाह स्वीकार करता है। जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 ने फरमाया है।
" ثلاث دعوات لا شك في إجابتهن دعوة المظلوم ودعوة المسافر ودعوة الوالد على ولده" [الترغيب و الترهيب’ رقم الحديث: 198841]
अर्थः " निःसंदेह तीन दुआयें स्वीकर की जाती हैं नृशंसित की दुआ और यात्री की दुआ और माँ-बाप की दुआ संतान के बारे में "
(5) माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करने पर अल्लाह तआला ऊम्र में ज़ियादती और जीवीका तथा रोज़ी में अधीकता विस्तार करता है। जैसा कि रसूलुल्लाह के फरमान में आता है।
" من سره أن يمد له في عمره ويزاد في رزقه فليبر والديه وليصل رحمه " [: الترغيب والترهيب : 3/293 و سنن الترمذي ]
अर्थः " जिस व्यक्ति को प्रसन्नता प्राप्त हो कि उसे लंबी ऊम्र मिले और उस के रोज़ी में ज़ियादती हो तो वह अपने माँ-बाप के साथ नेकी करे और अपने संबंधियों के साथ उपकार करे "
हानि जो माँ-बाप के अवज्ञा एंव कृतनिंदा करने से प्राप्त होता है।
(1) माँ-बाप की अवज्ञा और उनकी नाफरमानी बड़े पापों में से है। जैसा कि रसुलूल्लाह ने फरमाया है।
ألا أنبئكم بأكبرالكبائر . ثلاثا ، قالوا : بلى يا رسول الله ، قال : الإشراك بالله ، وعقوق الوالدين وجلس وكان متكئا ، فقال - ألا وقول الزور, قال : فما زال يكررها حتى قلنا: ليته يسكت" [صحيح البخاري:رقم الحديث: 2654]
अर्थः " किया तुम्हें पापों में बड़े पापों के बारे में ज्ञान न दूँ , तीन बार कहा, आप के साथियों ने उत्तर दियाः क्यों नही ऐ अल्लाह के रसूल, आप ने फरमायाः अल्लाह के साथ किसी दुसरे को साझीदार बनाना, और वालिदैन की नाफरमानी करना, और आप टेक लगाऐ थे ,बैठ गऐ, तो फरमाया, सुनो, झूटी गवाही देना,(रावी कहते हैं) आप इसे बार बार दोहरा रहे थे यहाँ तक कि हमने (दिल में) कहाः काश कि आप खामूश हो जाते "
(2) यदि माँ-बाप नाराज़,अप्रसन्न हो तो अल्लाह भी नाराज़ होगा।और वह बद बख्त होगा जिस से अल्लाह नाराज़ हो, इसी लिए माँ-बाप की खूब सेवा करके उनको खूश रखें। जैसा कि नबी स0 अ0 न0 स0 ने फरमाया,
" رضى الله في رضى الوالدين ، وسخط الله في سخط الوالدين " [صحيح ابن حبان: رقم الحديث: 33459]
अर्थः " अल्लाह की खुशी माता-पिता की प्रसन्नता में गुप्त है और अल्लाह की अप्रसन्नता माँ-बाप के क्रोध में है।"
(3) जो लोग माता-पिता के साथ अप्रिय व्यवहार करते हैं। उनको कष्ट देते , उन पर अत्याचार करते , उनको सताते हैं। उनकी संतान भी उनके साथ अप्रिय व्यवहार करते, उनको कष्ट देते हैं। और यह बात तजुरबे से साबित है। और आप लोग ने भी अनगनित वाक़ियात देखे होंगे। बैशक जो जैसा बीज बोऐगा, वैसा फल काटेगा, और प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 का फरमान है।
" بروا آباءكم تبركم أبناءكم ................" [ الترغيب والترهيب : 3/294 ]
अर्थः " अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, तुमहारी संतान तुम्हारे साथ उत्तम व्यवहार करेगी,"
(4) जो लोग माँ-बाप के साथ अनुचित व्यवहार और अशिष्टि तथा अत्याचार करते हैं। अल्लाह तआला एसे व्यक्ति को संसार में ही अपमानित करता है। वह व्यक्ति लोगों की नज़र में नीच , कमीना और बेइज़्ज़त होता है और मृत्यु के पश्चात भी अल्लाह उसे सख्त दंड देगा।
(5) माता-पिता के अवज्ञा कारी को अल्लाह तआला क़ियामत के दिन कृपा की दृष्टि से नहीं देखेगा और जिस से अल्लाह नज़र मोड़ ले, वह बहुत बड़ा अभागी है। एसे बद नसीब शख्स के बारे में रसूलुल्लाह स0 अ0 व0 स0 का कथन पढ़े -
" ثلاثة لا ينظر الله إليهم يوم القيامة : العاق لوالديه ، ومدمن خمر ، والمنان بما أعطى " [كتاب التوحيد لإبن خزيمة : 2/859 ]
अर्थः " क़ियामत के दिन अल्लाह तआला तीन शख्सों की ओर दया की नज़र से नहीं देखेगाः अपने माता-पिता की नाफरमानी करने वाले , खूब दारू पीने वाले , भलाई करके उपकार जताने वाले "
(6) बरबादी और हलाकत है उस आदमी के लिए जो बूढ़े माता-पिता की सेवा और खिदमत करके जन्नत (स्वर्ग) में दाखिल न हो सका
" رغم أنف ، ثم رغم أنف ، ثم رغم أنف قيل : من ؟ يا رسول الله ! قال : من أدرك أبويه عند الكبر ، أحدهما أو كليهما فلم يدخل الجنة " [الصحيح لمسلم : رقم الحديث: 1880 ]
अर्थः " उस व्यक्ति की सत्यानाश हो , फिर उस व्यक्ति की सत्यानाश हो , फिर उस व्यक्ति की सत्यानाश हो, कहा गया , कौन ? ऐ अल्लाह के रसूल ! आप ने फरमायाः जो अपने माता-पिता में से एक या दोनों को बूढ़ापे की उम्र में पाये और जन्नत में दाखिस न हो सका।"
(7) जिबरील अलैहिस्सलाम की धिक्कार और नबी स0 अ0 व0 स0 की धिक्कार उस व्यक्ति पर जो बूढ़े माता-पिता को पाये और उनकी सेवा न किया , उनको खूश न कर सका जिस के कारण जहन्नम (नर्ग) में प्रवेश हो गया।
صعد رسول الله صلى الله عليه وسلم المنبر فلما رقي عتبة قال: آمين ثم رقي أخرى فقال: آمين ثم رقي عتبة ثالثة فقال: آمين ثم قال : " أتاني جبريل عليه السلام فقال: يا محمد من أدرك رمضان فلم يغفر له فأبعده الله , فقلت: آمين قال: ومن أدرك والديه أو أحدهما فدخل النار فأبعده الله , فقلت: آمين قال: ومن ذكرت عنده فلم يصل عليك فأبعده الله , قل : آمين فقلت: آمين" [الترغيب والترهيب : للمنذري : 2/406]
अर्थः रसूलुल्लाह स0 अ0 व0 स0 मिंबर पर चढ़े तो जब पहला जीना चढ़े , कहाः आमीन , फिर दुसरा ज़ीना चढ़े तो कहाः आमीन , फिर तीसरा ज़ीना चढ़े तो कहाः आमीन , फिर फरमायाः मेरे पास जिबरील अलैहिस्साम आये और कहाः ऐ मोहम्मद जो रमज़ान पाये तो उसे माफ नहीं किया गया तो अल्लाह उसे दूर करे , मैं ने कहाः आमीन , जिबरील ने कहाः और जो अपने माँ-बाप या उन दोनें में से एक को पाये तो जहन्नम (नर्ग) में दाखिल हूआ तो अल्लाह उसे दूर करे , मैं ने कहाः आमीन , जिबरील ने कहाः और जिस के समक्ष आप का नाम आये और आप पर दरूद न पढ़े तो अल्लाह उसे दूर करे , आमीन कहो , तो मैं ने कहाः आमीन ,
इस्लाम ही वह महान एंव सर्वश्रेष्ठ धर्म है जो हर मनुष्य को उसके उचित स्थान पर रखता है। जब संतान छोटा होता है तब माता-पिता को अल्लाह ने यह आज्ञा दिया कि तुम अपने संतान की अच्छी पालण पोशन करो , उसे उत्तम शिक्षा दिलाओ , उस पर हर प्रकार से धयान दो,
फिर जब माता-पिता बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जाऐ तो उन के साथ भी सर्वश्रेष्ट सुलूक किया जाऐ। उनको हर प्रकार से प्रसन्न रखा जाए। और उन पर अपनी संपती खर्च किया जाऐ । और अपने इस कर्तव्य का पुरूष्कार अल्लाह के पास प्राप्त करें ...अच्छा .... या बुरा....

महापाप (बड़े गुनाह) क्या हैं ?

महापाप (बड़े गुनाह) क्या हैं ? महापाप (बड़े गुनाह) क्या हैं ?   महापाप (बड़े गुनाह) प्रत्येक वह कार्य जिस का पाप बहुत ज़्य...