जीवन बहुमूल्य है जिस के सही प्रयोग से ही हमें सफलता प्राप्त होगी और हम कभी भी दुसरों के लिए गढा न खोदें, संभावना है कि कहीं हम ही न उस गढे में गिर जाए।
बुधवार, 30 सितंबर 2009
औरत का स्थान
कुरआन मजीद की इस आयत में स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि मर्द तथा स्त्री दोनों एक ही तरह के दो जीव हैं और दोनों जीवों की रचना का उद्देश्य मानव-जाति को बढ़ाना और उसके सिलसिले को क़ायम रखना है।
इस रचना का दुसरा उद्देश्य भी बताया गया है। धयानपुर्वक से अल्लाह ताला के कथन को पढ़े। " वही है जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी से उस का जोड़ा बनाया ताकि उसके पास सुकून हासिल करे "
इन दोनों आयतों पर विचार करें तो मालूम होगा कि मर्द और औरत को एक ही स्थान पर रखा गया है
इसलाम ही एक मात्र धर्म है जिस ने हर मानव को उस का सही स्थान दिया है जो उस के प्राकृतिक जन्म से मेल खाता है। उसे वह अधिकार दिया जो उस के शारीरिक एंव मान्सिक शक्ती के अनुसार है। औरत प्राकृतिक और शारीरिक शक्ति के अनुसार कमज़ोर है इसी लिए जीवन के हर पराव में एक रक्षक दिया। जब बालिका हो तो बाप और बड़ा भाई उसकी एजूकेशन,खान-पान की व्यवस्था करे, उसकी हर तरह से रक्षा करे, उस से प्रेम करे, लड़का तथा लड़की में कोई अन्तर न रखे और जब बालिका बड़ी हो जाऐ तो उचित लड़के से विवाह कर दे। अब पति पर सरी ज़िमेदारी होगी कि अपनी शक्ति के अनुसार उसे अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनाए , अच्छा खाना खिलाए और उसकी रक्षा करे,उसके साथ अच्छा व्यवहार करे और यह एहसान नहीं बल्कि पत्नी का पति पर अधिकार है यदि कोई पति अपनी पत्नी की जिमेदारी को सही ढंग से अदा नही करता तो वह अल्लाह के पास पापी होगा। जब औरत माता श्री होजाए तो बच्चे अपने माता-पिता की आज्ञा करे और माता को पिता पर तीन दरजा ऊंचा स्थान दिया मोहम्मद स0 अ0 स0 के कथन को पढ़े " एक आदमी नबी स0 अ0 स0 के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! कौन मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है ? तो आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप। " (सह़ीह़ुल बुखारीः ह़दीस संखियां- 113508)
जब माता बुढ़ापे को पहुंच जाए तो बेटा जीविका का व्यवस्था करे और उसे किसी बात पर बुरा-भला न कहे और नहीं डांटे-फटकारे बल्कि उनके किसी बात पर " हूँ " तक न कहे । अल्लाह तआला ने मुसलमानों को इसी का आज्ञा दिया है।
" अगर तुम्हारे पास इन में से एक या यह दोनों (माता-पिता) बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जायें तो उनको ऊफ तक न कहना और नहीं उन्हें डाँटना "( सूरः इस्राः23)
एक औरत चाहे वह बेटी हो, या पत्नी या माँ हर हाल में रानी है जिसकी सेवा करना मर्द संबंधी पर अनिवार्य है और इस्लाम के नियमों में कोई भी व्यक्ती संशोधन नही कर सकता है। जो इस्लाम के आज्ञानुसार जीवन गुज़ारेगा,उसे पुण्य प्राप्त होगा और जो इस्लाम के आज्ञा का उलंघन करेगा वह पापी होगा परन्तु कुच्छ लोग अज्ञानता के कारण इस्लाम पर यह आरोप लगाते है कि इस्लाम ने स्त्री को सही स्थान नही दिया है, इस्लाम ने औरतों के साथ भेद-भाव रखा है। इस्लाम ने स्त्री पर अत्याचार किया है। इन सब का (इन शा अल्लाह) अगले महीने विस्तार से उत्तर दुंगा जब तक के लिए अनुमति दिजीये
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
प्रेम एक विचित्र मनोभाव है। इसी मनोभाव के कारण मनुष्य मुश्किल से मुश्किल काम को सरलतापूर्वक कर ले जाता है। इसी अनुराग के प्रति उन्नति तथा प्रगति के कृत्तिका नक्षत्र को प्राप्त करता है क्यों कि जिस चीज़ से मनुष्य प्रेम करता है उसे अपने प्राण से भी अधिक प्रेम करता है। अपने आप को उस के लिए बलिदान कर देता है। इसी कारण यदि प्रेम अल्लाह से हो तो पूजा बन जाती है यदि प्रेम नबी स0 अ0 व0 स0 से हो तो अनुसरण का प्रकाश बन जाता है। प्रेम माँ-बाप से हो तो अल्लाह की प्रसन्नता का कारण बन जाता है। अल्लाह तआला सर्व मानव से प्रेम करता है। इसी कारण उसने मानव को एक दुसरे से प्रेम करने की आज्ञा दिया है और तमाम मानव के बीच एक दुसरे पर कुछ ह़ुक़ूक़ एंव अधिकार को अनिवार्य किया है जिसे पूरा करना ज़रूरी है। इन हुकूक और वाजबात में सब से पहला और बड़ा हक़ अल्लाह का है और वह यह कि केवल अल्लाह की उपासना तथा उसी की पूजा की जाऐ और उसके साथ किसी को भागीदार न ठहराया जाए।
एक बार प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 ने मआज़ रजि0 से प्रशन किया।
معاذ . قلت : لبيك رسول الله وسعديك ، قال : هل تدري ما حق الله على عباده , قلت : الله ورسوله أعلم ، قال : ( حق الله على عباده أن يعبدوه ولا يشركوا به شيئا) [ صحيح البخاري رقم الحديث) [ صحيح البخاري رقم الحديث: 13512
अर्थ ,,ऐ मआज़ ! , मैं ने कहाः अल्लाह के रसूल हाज़िर हूँ , फरमाईये, आपने कहाः क्या तुम जानते हो कि अल्लाह का अपने दासों पर किया हक़ है ? मैं ने उत्तर दियाः अल्लाह और उस के रसूल अधिक जानते हैं। तो आप ने कहाः अल्लाह का दासों पर हक़ है कि वह केवल अल्लाह की पूजा करें और उस के साथ किसी को उस का साझीदार न बनाऐ ,,
यह तो पहला हक़ हुआ हम पर दुसरा हक प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 का है जिन के शिक्षा के कारण हम ने अपने वास्तविक मालिक को पहचाना है और वह हक यह है कि हम अपने जीवन के हर मोड़ पर प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 के आज्ञा का पालन करें, जिन चीज़ो के करने का हुक्म दिया है वह करें और जिन चीज़ों से रोका है उस से रुक जाएं यही आदेश अल्लाह तआला ने हमें क़ुरआन में दिया है -
" و ما اتاكم الرسول فخذوه و ما نهاكم عنه فانتهوا " [ سورة الحشر:7 ]
अर्थः " और तुम्हें जो कुछ रसूल दें उसे ले लो और जिस से रोकें रूक जोओ "
तीसरे नम्बर पर हम पर हमारे माता पीता के अधिकार प्रचलित होते हैं। जिन के प्रेम तथा मोहब्बत, मेहनत और लगन , उनकी सेवा और स्वार्थ त्याग के कारण ही हमने अपने व्यक्तित्व को परवान चढ़ाया है और अल्लाह तआला के बाद हमारे उत्पन्न का कारण भी वह दोनों हैं, इस लिए अल्लाह तथा उस के रसूल के बाद हम पर अपने माता पिता का बड़ा अधिकार और ह़क़ है। यही वजह है कि अल्लाह ने उन के पद को काफी ऊंचा और बुलंद किया है। अल्लाह तआला फरमाता है –
" و اعبدوا الله و لاتشركوا به شيئا و بالوالدين إحسانا " [النساء : 36 ]
अर्थः" और अल्लाह की इबादत करो और उस के साथ किसी को शरीक़ न करो और माँ-बाप के साथ एहसान करो "
इस आयत पर चिंतन मनन करें कि अल्लाह जल्ल शानहु ने अपनी पूजा और उपासना के साथ माता-पिता के साथ उपकार करने का आज्ञा देकर इनसानों को खबरदार किया कि उनके साथ हर प्रकार की भलाई, प्रेम, स्वार्थ त्याग, कृपा का व्यवहार करो।
अल्लाह तआला माता-पिता के पद, श्रेष्ठा, महानता और सम्मान को बढ़ाते हेतू विभिन्न शैली से मानव को संबोधित करता हैं जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है -
" وإذ أخذنا ميثقاق بني إسرآئيل لاتعبدون إلا الله و بالوالدين إحسانا " [ البفرة:83 ]
अर्थः" और जब हम ने इसराईल के पुत्रों से वचन लिया कि तुम अल्लाह के सेवाय किसी और की इबादत न करना और माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करना "
पवित्र क़ुरआन में अन्य स्थान पर अल्लाह तआला फरमाता है -
" و قضى رّبك ألا تعبدوا إلا إيّاه و بالوالدين إحسانا" [ الإسراء :23]
अर्थः " और तेरा रब खुला हुक्म दे चुका है कि तुम उसके सिवाय किसी दूसरे की अराधना (इबादत) न करना और माता-पिता के साथ अच्छा सुलूक करना "
इसी तरह अल्लाह तआला ने मानव को आज्ञा दिया कि वह माता-पिता के साथ उत्तम उपकार तथा भलाई का बरताव करें जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है।
" ووصينا الإنسان بوالديه إحسانا " [ الأحقاف : 15]
अर्थः " और हमने मानव को ताकीद से आज्ञा दिया कि वह अपने माता-पिता के साथ उपकार करें "
अल्लाह तआला के पास बन्दो के कर्मों में से प्रिय कर्म माता-पिता के साथ उत्तम व्यवहार है। अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ि ने प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 से प्रशन किया।
" أي العمل أحب إلى الله ؟ قال : الصلاة على وقتها, قلت ثم أي ؟ قال : بر الوالدين, قلت ثم أي ؟ قال : الجهاد في سبيل الله " [ صحيح البخاري رقم الحديث 117454 ]
अर्थः " कौन सा कर्तव्य अल्लाह के पक्षपात प्रिय है ? आप ने उत्तर दियाः नमाज़ के प्राथमिक समय में नमाज़ पढ़ना , मैं ने कहाः फिर कौन सा ? आप ने उत्तर दियाः माता-पिता के साथ उत्तम व्यवहार करना , मैं ने कहाः फिर कौन सा ? आप ने उत्तर दियाः अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना "
इस्लाम धर्म ने माता-पिता को सर्वश्रेष्ट पद दिया है और उन को इतना ऊंचा और बुलंद वर्ग पर बैठाया है कि अन्य धर्मों में इसका उदाहरण और तुलना नहीं।
इस्लाम ने माँ-बाप के साथ उपकार और अच्छा स्वभाव को अल्लाह की पूजा और आराधना के बाद का दर्जा तथा पद दिया है।
माता-पिता के कुछ अनीवार्यित हुक़ूक़
निःसंदेह माता-पिता का अपने सपूतों पर अनगिनित हुक़ूक़ तथा उपकार है। कोई भी मानव अपने माँ-बाप का हक़ अदा नहीं कर सकता और नहीं उनके कृपा को गिन सकता है परन्तू उनके कुछ अनीवार्यित हुक़ूक़ निम्लिखित शतरों में बयान किया जा रहा है।
(1) माता-पिता के साथ हर हाल में उपकार एंव इहसान करना जैसा कि अल्लाह तआला का आदेश है।
" و وصينا الإنسان بوالديه حسنا " [ سورة العنكبوت:8 ]
अर्थः " और हम ने हर इंसान को अपने माता-पिता से अच्छा सुलूक करने की शिक्षा दी है।"
(2) माता-पिता के आज्ञा का पालन करना जब तक वह आज्ञा प्रमेशवर के आदेश के प्रतिपक्षी और उनके कथन के विरोधी न हो जैसा कि प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 ने फरमाया है।
" لا طاعة لمخلوق في معصية الخالق " [ تاريخ بغداد - رقم الحديث: 36298]
अर्थः " अल्लाह की नाफरमानी में किसी बन्दे की आज्ञाकारी उचित नहीं "
उमर रज़ि0 के किस्सा से माता-पिता की बात मान्ने की महत्वपूर्णता स्पष्ट होती है। उमर फारूक़ रजि0 ने अपने पुत्र अब्दुल्लाह रज़ि0 को कहा कि तुम अपनी स्त्री को तलाक़ दो प्रन्तु वह अपने स्त्री से अधीक प्रेम करते थे उनहो ने तलाक़ देने से इनकार किया फिर उमर फारूक़ रज़ि0 ने नबी स0 अ0 व0 स0 से गिला किया तो आप स0 अ0 व0 स0 ने अब्दुल्लाह रज़ि0 को अपने पिता का कहना मान्ने और स्त्री को तलाक़ देने का आज्ञा दिया फिर अब्दुल्लाह रज़ि0 ने अपनी स्त्री को तलाक़ दे दिया।
وإن جاهداك على أن تشرك بي ما ليس لك به علم فلا تطعهما و صاحبهما في الدنيا معروفا " [سورة لقمان: 14 "]
अर्थः " और अगर वह दोनों इस बात की अंधक कोशिश करें के तुम मेरे साथ शिर्क करो जिस का तेरे पास ज्ञान नही है तो तुम उन दोनों की बात न मानो और संसार में उन के साथ भलाई करते हुऐ जीवन गुज़ारो "
इस आयत की स्पष्टित में सा़द बिन अबील वक्का़स रज़ि0 के इस्लाम लाने का क़िस्सा बहुत ही शिक्षा और नसीहत से भरा है। जब साद रज़ि0 ने इस्लाम स्वीकार किया तो उनकी माँ ने कहाः मैं उस समय तक खाना नही खाऊंगी जब तक तुम इस्लाम छोड़ कर अपने पुर्वज धर्म में लौट न आऔ और उनकी माँ ने खाना-पीना त्याग दिया। साद रज़ि0 ने माँ से कहाः ऐ माता , अगर तेरे पास एक सौ प्राण होती और वह एक एक कर के निकलती तब भी मैं इस्लाम नहीं छोरूंगा। दो दिन की भूक हढताल के बाद अंत में उनकी माँ ने खाना-पीना आरंभ कर दिया।
جاء رجل إلى النبي صلى الله عليه وسلم يستأذنه في الجهاد . فقال " أحي والداك ؟ " قال : نعم . قال " ففيهما فجاهد " . (صحيح مسلم: رقم الحديث :175940)
अर्थः एक आदमी नबी स0 अ0 व0 स0 के पास अल्लाह के पथ में जिहाद करने के लिए आज्ञा लेने के लिए आया तो आपने प्रशन क्या। क्या तुम्हारे माता-पिता जीवीत हैं ? उसने कहाः जी हाँ, आप ने कहाः तो तम उन दोनों की हृदय की प्रेम के साथ खूब सेवा करो।
" إمّا يبلغنّ عندك الكبر أحدهما أو كلاهما فلا تقل لهما أف ولا تنهر هما" [ الإسراء : 23]
अर्थः " अगर तुम्हारे पास इन में से एक या यह दोनों बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जायें तो उनको ऊफ तक न कहना और नहीं उन्हें डाँटना "
अल्लाह तआला ने भी मानव को इसी की ह़ुक्म दिया है -
" و قل لهما قولا كريما " [ الإسراء : 23]
अर्थः " और उनके साथ आदर तथा सम्मान से बातचीत करो "
(7) उनके साथ हर प्रकार से नरमी करना और प्रेम का स्वभाव करना जैसा के अल्लाह तआला का आदेश है।
" واخفض لهما جناح الذل من الرحمة " [ الإسراء : 23]
अर्थः " और नर्मी तथा मुहब्बत के साथ उन के सामने इन्केसारी के हाथ फैलाये रखो "
अल्लाह तआ़ला के इस कथन को खौ़र से पढ़े –
" و قل ربّ ارحمهما كما ربّياني صغيرا " [ الإسراء : 23]
अर्थः " और कहोः ऐ मेरे रब , उन दोनों पर वैसे ही कृपा कर जैसा कि उनहों ने बचपन में हम पर दया और हमारी पालन पोषन किया "।
عن عبدالله بن عمرو بن العاص أن أعرابيا أتى النبي صلى الله عليه وسلم فقال إن لي مالا وولدا وإن والدي يريد أن يجتاح مالي قال: " أنت ومالك لأبيك إن أولادكم من أطيب كسبكم فكلوا من كسب أولادكم" [ إرواء الغليل:رقم الحديث 148533 ]
अर्थः अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आ़स रज़ि0 से वर्णन है कि एक देहाती नबी स0 अ0 व0 स0 के पास आया और कहाः बैशक मेरे पास धन-दौलत और बाल-बच्चे हैं। और मेरे पिता मेरा धन-दौलत ले लेते हैं। आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दिया " तुम और तुम्हारी धन-दौलत तुम्हारे पिता की चीज़ है। निःसंदेह संतान तेरी उत्तम कमाई है तो तुम अपने संतान की कमाई खाओ"
عن أبي هريرة أنه قال : كان جريج يتعبد في صومعة . فجاءت أمه فقالت : ياجريج ! أنا أمك . كلمني . فصادفته يصلي . فقال : اللهم ! أمي وصلاتي فاختار صلاته . فرجعت ثم عادت في الثانية . فقالت : ياجريج ! أنا أمك . فكلمني . قال : اللهم ! أمي وصلاتي.فاختار صلاته . فقالت : اللهم ! إن هذا جريج . وهو ابني . وإني كلمته فأبى أن يكلمني . اللهم ! فلا تمته حتى تريه المومسات . قال:ولو دعت عليه أن يفتن لفتن . قال :وكان راعي ضأن يأوي إلى ديره قال فخرجت امرأة من القرية فوقع عليهاالراعي فحملت فولدت غلاما فقيل لها : ما هذا ؟ قالت : من صاحب هذا الدير . قال فجاءوا بفؤسهم و مساحيهم فنادوه فصادفوه يصلي . فلم يكلمهم . قال فأخذوا يهدمون ديره . فلما رأى ذلك نزل إليهم . فقالوا له : سل هذه:قال فتبسم ثم مسح رأس الصبي فقال : من أبوك ؟ قال : أبي راعي الضأن . فلما سمعوا ذلك منه قالوا : نبني ما هدمنا من ديرك بالذهب والفضة . قال : لا . ولكن أعيدوه ترابا كما كان . ثم علاه [ صحيح مسلم : رقم الحديث:175942 ]
अर्थः अबू-होरैरा रज़ि0 फरमाते हैं " जुरैज अपने कुट्या में अराधना (इबादत) करता था तो उसकी माँ आई और कहाः ऐ जुरैज ! मैं तुम्हारी माँ हूँ , तुम मुझ से बात करो प्रन्तु वे नमाज़ पढ़ रहे थे तो हृदय में विचार किया, ऐ अल्लाह ,मेरी माँ और नमाज़ फिर वे नमाज़ पढ़ते रहे, और उसकी माता लौट आई फिर दुसरी बार आई और कहा, ऐ जुरैज ! मैं तुम्हारी माता हूँ , तुम मुझ से बात करो प्रन्तु वे नमाज़ पढ़ रहे थे तो हृदय में विचार किया, ऐ अल्लाह, मेरी माता और नमाज़ फिर वे नमाज़ पढ़ते रहे, तो उसकी माँ ने कहा, ऐ अल्लाह जुरैज मेरा पुत्र है और मैं उस से बात करना चाहती हूँ प्रन्तु वे बात करना नहीं चाहता, ऐ अल्लाह उसे संभोगिक स्त्री के समक्ष बिना मृतिव न दे, (रावी कहते हैं) और यदि यौन सम्बंधित की शाप देती तो वे करता ! और एक चड़वाहा उसके कुट्या में आता था। तो एक स्त्री ग्राम से निकली और उन दोनों ने यौन सम्बंध किया और औरत गर्भ से होगई और एक पुत्र जनम दिया। उस से कहा गया कि यह किस का है ? औरत ने उत्तर दियाः यह इस कुटया वाले का है ! लोग अपने कुल्हारी और हथौरों से उसके घर को मुन्हदिम करने लगे फिर वह नीचे उत्तरा तो लोगों ने कहा यह क्या है ? जुरैज हंसा फिर बच्चे के सर पर हाथ फैरा और कहाः तुम्हारा बाप कौन है ? बच्चे ने उत्तर दियाः मेरा बाप चड़वाहा है। तो जब लोगों ने ( जनम हेतू ) बच्चे को बोलते हूऐ सूना तो कहा कि हम आप के घर को सोने-चाँदी से बना देंगे तो उसने उत्तर दियाः नहीं, परन्तु जैसा था वैसा ही बना दो। "
" أن اشكر لي و لوالديك " [ سورة لقمان : 14 ]
अर्थः " तुम मेरे प्रति कृतरज्ञता दिखाओ और माँ-बाप के प्रति कृतज्ञ दिखाओ "
अल्लाह तआला ने मानव को आज्ञा दिया कि तम मेरे उपकारों का शुक्रीया अदा करो और माता-पिता के इहसानों का शुक्रीया अदा करो क्यों कि वास्तव में तुम जितना भी मेरा फिर अपने माँ-बाप का कृतरज्ञता दिखाओगे तब भी वह कम है।
इस्लाम ने माँ-बाप का पद बहुत ऊंचा किया है और उन दोनों के प्रति उत्तम सुलूक और उन दोनों का खूब आदर तथा सम्मान करने का आदेश दिया है। प्रन्तु उन दोनों में माता का ह़क़ और अधीकार पिता के समक्ष अधीक दिया है क्यों कि माँ ने बच्चे की देख-भाल में काफी कष्ट झेली है। माँ ने संतान के पालन पोषण में बहुत ज़ियादा तकलीफ बर्दाश्त की है। बाल-बच्चे को हर प्रकार के हर्ष तथा वयाकुलियों से सुरक्षित किया है। माता ने संतान के पालन-पोषण में पिता से अधीक बलिदान प्रत्य्क्ष किया है और बच्चों के लिऐ हर प्रकार का स्वार्थ त्याग दिया है। इस लिऐ इस्लाम ने माँ को अच्छे व्यवहार का ज़ियादा मुस्तह़िक़ क़रार दिया है। जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 के कथन से प्रमाणित है।
جاء رجل إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم فقال: يا رسول الله ، من أحق الناس بحسن صحابتي ؟ قال : ( أمك ) قال : ثم من ؟ قال) : ثم أمك ) قال : ثم من ؟ قال : ( ثم أمك ) قال : ثم من ؟ قال : ( ثم أبوك) [ صحيح البخاري : رقم الحديث : 113508]
अर्थः " एक आदमी रसूलुल्लाह स0 अ0 व0 स0 के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! कौन मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है ? तो आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप स0 अ0 व0 स0 ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप। "
श्रीमानः यह कुछ ह़ुक़ूक़ और अधीकार हैं जो माता-पिता के जीवन में ही बच्चों पर अनीवार्य होता है किन्तु कुछ वाजबात तथा अधीकार एंव ह़ुक़ूक़ ऐसे भी हैं जो माता-पिता के मृत्यु के पश्चात भी पूरा करना पड़ता है। जैसा कि प्रिय नबी स0 अ0 व0 स0 के आदेश से प्रमाणित है।
عن أبي أسيد الأنصاري رضي الله عنه قال: كنا عند النبي صلى الله عليه وسلم فقال رجل : يا رسول الله هل بقي من بر أبوي شيء بعد موتهما أبرهما قال : نعم ، خصال أربع : الدعاء لهما و الإستغفار لهما ، و إنفاذ عهدهما ، و إكرام صديقهما ، و صلة الرحم التي لا رحم لك إلا من قبلهما " [الأدب المفرد للبخاري ]
अर्थः अबू उसैद अन्सा़री रज़ि0 फरमाते हैं कि हम नबी करीम स0 अ0 व0 स0 के पास थे कि एक आदमी ने कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या मेरे वालिदैन के मरण के पश्चात भी कुछ अच्छा आचार,व्यवहार है जो मैं उन के साथ करू ? आप स0 अ0 व0 स0 ने फरमायाः " हाँ,चार चीज़ें हैं जो उन की मृत्यु के उपरांत भी किया जा सकता है "।
(1) उन दोनों के लिए दुआ करना क्यों कि दुआ मरने के बाद भी लाभ पहुंचाती है जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 के कथन में आया है
"إذا مات الإنسان انقطع عنه عمله إلا من ثلاثة: من صدقة جارية أوعلم ينتفع به أو ولد صالح يدعو له " [صحيح مسلم: رقم الحديث: 89269]
अर्थः " जब मानव मर जाता है तो उन के सारे कर्म ख़त्म हो जाते हैं सवाये तीन कर्म केः हमेशा रहने वाला दान , या, ज्ञान जिस से लाभ उठाया जाऐ , या, नेक पुत्र जो उन के लिए दुआ करे "
(2) इसी प्रकार माता-पिता के लिए अल्लाह से बख्शिश मांगना जैसा कि अल्लाह के नबी नूह़ अलैहिस्सलाम अपने माँ-बाप के लिए अल्लाह से बख्शिश मांगते थे।
"رب اغفر لي و لوالديّ و لمن دخل بيتي مؤمنا و للمؤمنين و المؤمنات " [ سورة نوح:28 ]
अर्थः " ऐ मेरे मालिक , मुझे क्षिमा कर दे और मेरे माता-पिता और मोमिन पुरूषों तथा स्त्रीयों को क्षिमा कर दे "
" أن رجلا من الأعراب لقيه بطريق مكة . فسلم عليه عبدالله . وحمله على حمار كان يركبه . وأعطاه عمامة كانت على رأسه . فقال ابن دينار : فقلنا له : أصلحك الله ! إنهم الأعراب وإنهم يرضون باليسير . فقال عبدالله : إن أبا هذا كان ودا لعمر بن الخطاب وإني سمعت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول " إن أبر البر صلة الولد أهل ود أبيه "[ صحيح مسلم : رقم الحديث :175943]
अर्थः अब्दुल्लाह बिन दीनार कहते हैं कि एक ग्रामीण से भेंट हुई,तो अब्दुल्लाह ने उसे सलाम किया। और जिस गध्हे पर बैठे थे वह उसे दे दिया और अपने सर से पगड़ी उतार कर उसे दे दिया। तो इब्ने दीनार ने कहाः अल्लाह आप का भला करे ! निःसंदेह ये ग्रामिक लोग हैं। और ये थोड़ा प्राप्त कर के परसन्न होते हैं। अब्दुल्लाह ने उत्तर दिया, बैशक इस व्यक्ति का पिता उमर बिन खत़्त़ाब का मित्र था और मैं ने नबी स0 अ0 व0 स0 को फरमाते हेतू सुना है। " निःसंदेह नेकियों में सब से बड़ी नेकी पुत्र का अपने पिता के प्रेमियों के परीवार वालो के साथ अच्छा व्यवहार करना है। "
इस्लाम ही वह महान धर्म है जिस ने प्रति व्यक्ति को उस का मुनासिब स्थान दिया है और इस्लाम ने माता-पिता का जो स्थान एंव पद दिया है अन्य धर्म इस के बहुत पिछे है।
लाभ जो माता-पिता का सेवा करने से प्राप्त होते हैं।
(1) यदि आप पितरौं के साथ भलाई तथा उपकार करते हैं तो मानो आप अल्लाह के आज्ञाकारी के पथ पर गमन करते हैं और जो अल्लाह के पथ पर चलेगा अल्लाह उसे महान परुष्कार देगा।
''رضى الله في رضى الوالدين ، وسخط الله في سخط الوالدين" [صحيح ابن حبان: رقم الحديث: 33459]
अर्थः अल्लाह की खुशी माता-पिता की प्रसन्नता में गुप्त है और अल्लाह की अप्रसन्नता माँ-बाप के क्रोध में है।
(3) मितरौ के साथ सवच्छ व्यवहार और उनकी निःस्वार्थ सेवा तथा उनके साथ बेहतरीन सुलूक जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश का सर्टीफिकेट है। जैसा कि नबी स0 अ0 व0 स0 ने फरमाया है।
" الوالد أوسط أبواب الجنة ، فإن شئت فأضع ذلك الباب أو احفظه" [ سنن الترمذي: رقم الحديث: 9979]
अर्थः " पिता जन्नत के द्वार में से बीच्ला द्वार है तो तुम इसे सुरक्षित करलो या इसे नष्ट कर दो "
" ثلاث دعوات لا شك في إجابتهن دعوة المظلوم ودعوة المسافر ودعوة الوالد على ولده" [الترغيب و الترهيب’ رقم الحديث: 198841]
अर्थः " निःसंदेह तीन दुआयें स्वीकर की जाती हैं नृशंसित की दुआ और यात्री की दुआ और माँ-बाप की दुआ संतान के बारे में "
" من سره أن يمد له في عمره ويزاد في رزقه فليبر والديه وليصل رحمه " [: الترغيب والترهيب : 3/293 و سنن الترمذي ]
अर्थः " जिस व्यक्ति को प्रसन्नता प्राप्त हो कि उसे लंबी ऊम्र मिले और उस के रोज़ी में ज़ियादती हो तो वह अपने माँ-बाप के साथ नेकी करे और अपने संबंधियों के साथ उपकार करे "
हानि जो माँ-बाप के अवज्ञा एंव कृतनिंदा करने से प्राप्त होता है।
ألا أنبئكم بأكبرالكبائر . ثلاثا ، قالوا : بلى يا رسول الله ، قال : الإشراك بالله ، وعقوق الوالدين وجلس وكان متكئا ، فقال - ألا وقول الزور, قال : فما زال يكررها حتى قلنا: ليته يسكت" [صحيح البخاري:رقم الحديث: 2654]
अर्थः " किया तुम्हें पापों में बड़े पापों के बारे में ज्ञान न दूँ , तीन बार कहा, आप के साथियों ने उत्तर दियाः क्यों नही ऐ अल्लाह के रसूल, आप ने फरमायाः अल्लाह के साथ किसी दुसरे को साझीदार बनाना, और वालिदैन की नाफरमानी करना, और आप टेक लगाऐ थे ,बैठ गऐ, तो फरमाया, सुनो, झूटी गवाही देना,(रावी कहते हैं) आप इसे बार बार दोहरा रहे थे यहाँ तक कि हमने (दिल में) कहाः काश कि आप खामूश हो जाते "
अर्थः " अल्लाह की खुशी माता-पिता की प्रसन्नता में गुप्त है और अल्लाह की अप्रसन्नता माँ-बाप के क्रोध में है।"
" بروا آباءكم تبركم أبناءكم ................" [ الترغيب والترهيب : 3/294 ]
अर्थः " अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, तुमहारी संतान तुम्हारे साथ उत्तम व्यवहार करेगी,"
" ثلاثة لا ينظر الله إليهم يوم القيامة : العاق لوالديه ، ومدمن خمر ، والمنان بما أعطى " [كتاب التوحيد لإبن خزيمة : 2/859 ]
अर्थः " क़ियामत के दिन अल्लाह तआला तीन शख्सों की ओर दया की नज़र से नहीं देखेगाः अपने माता-पिता की नाफरमानी करने वाले , खूब दारू पीने वाले , भलाई करके उपकार जताने वाले "
" رغم أنف ، ثم رغم أنف ، ثم رغم أنف قيل : من ؟ يا رسول الله ! قال : من أدرك أبويه عند الكبر ، أحدهما أو كليهما فلم يدخل الجنة " [الصحيح لمسلم : رقم الحديث: 1880 ]
अर्थः " उस व्यक्ति की सत्यानाश हो , फिर उस व्यक्ति की सत्यानाश हो , फिर उस व्यक्ति की सत्यानाश हो, कहा गया , कौन ? ऐ अल्लाह के रसूल ! आप ने फरमायाः जो अपने माता-पिता में से एक या दोनों को बूढ़ापे की उम्र में पाये और जन्नत में दाखिस न हो सका।"
صعد رسول الله صلى الله عليه وسلم المنبر فلما رقي عتبة قال: آمين ثم رقي أخرى فقال: آمين ثم رقي عتبة ثالثة فقال: آمين ثم قال : " أتاني جبريل عليه السلام فقال: يا محمد من أدرك رمضان فلم يغفر له فأبعده الله , فقلت: آمين قال: ومن أدرك والديه أو أحدهما فدخل النار فأبعده الله , فقلت: آمين قال: ومن ذكرت عنده فلم يصل عليك فأبعده الله , قل : آمين فقلت: آمين" [الترغيب والترهيب : للمنذري : 2/406]
अर्थः रसूलुल्लाह स0 अ0 व0 स0 मिंबर पर चढ़े तो जब पहला जीना चढ़े , कहाः आमीन , फिर दुसरा ज़ीना चढ़े तो कहाः आमीन , फिर तीसरा ज़ीना चढ़े तो कहाः आमीन , फिर फरमायाः मेरे पास जिबरील अलैहिस्साम आये और कहाः ऐ मोहम्मद जो रमज़ान पाये तो उसे माफ नहीं किया गया तो अल्लाह उसे दूर करे , मैं ने कहाः आमीन , जिबरील ने कहाः और जो अपने माँ-बाप या उन दोनें में से एक को पाये तो जहन्नम (नर्ग) में दाखिल हूआ तो अल्लाह उसे दूर करे , मैं ने कहाः आमीन , जिबरील ने कहाः और जिस के समक्ष आप का नाम आये और आप पर दरूद न पढ़े तो अल्लाह उसे दूर करे , आमीन कहो , तो मैं ने कहाः आमीन ,
फिर जब माता-पिता बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जाऐ तो उन के साथ भी सर्वश्रेष्ट सुलूक किया जाऐ। उनको हर प्रकार से प्रसन्न रखा जाए। और उन पर अपनी संपती खर्च किया जाऐ । और अपने इस कर्तव्य का पुरूष्कार अल्लाह के पास प्राप्त करें ...अच्छा .... या बुरा....
रविवार, 28 जून 2009
जीवन के लिए कुच्छ महत्वपूर्ण बातें
पहले जमाने(भूत काल) में लोग शिक्षा के लिए गुरू के घर पधारते थे।एक गुरू की शिक्षा लेने के बाद दुसरे गुरू के पास जाते थे। इसी प्रकार की यह एक सही कहानी है।गुरू तथा छात्र के बीच होने वाली बात-चीत को धयान से पढ़े और अपनी जीवन में इस का लाभ उठाए।
गुरूः तुम कितने साल से मेरे साथ रह रहे हो ?
छात्रः 33 वर्ष
शिक्षकः इस अवधि में तुमने किया ज्ञान प्राप्त किया ?
क्षा 8 बातें का ज्ञान प्राप्त हुआ।
शिक्षकः बड़े खेद से कहते हैं। तुमहारे साथ मेरी आयु खतम हो गई परन्तु तुमने आठ ही चीजें सीखा है।
क्षात्रः मान्य गुरू जी, मैं ने केवल इनही चीज़ों का ज्ञान प्राप्त किया है और मुझे झूट बोलना पसन्द नही है।
शिक्षकः जो सीखा है, मुझे बताओ ?
क्षात्रः पहली बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो पाया कि हर कोई अपने प्रिय से प्रेम करता है प्रन्तु जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसका प्रिय उसे छोड़ जाता है। इसी लिए मैं ने पुन्य को अपना प्रिय बनाया ताकि जब मेरी मृत्यु हो तो पुन्य मेरे साथ हो।
दुसरी बात
मैं ने अल्लाह के इस कथन पर चिन्ता किया "और जिसने अपने रब के सामने खड़े होने का डर रखा था और जी को बुरी इच्छाओं से रोके रखा था,जन्नत(स्वर्ग)उसका ठिकाना होगा"( सूराः79,आयतः42)
इसी कारण मैं ने अपने जी को बुरी इच्छाओं से दूर रखने में बहुत संघर्ष किया है अब मेरा हृदय अल्लाह की आज्ञा में लगा रहता है।
तीसरी बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो मैं ने पाया कि प्रति व्यक्ति अपने बहुमूल्य पदार्थ को सुरक्षित रखता है ताकि वह नष्ठ न हो, फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गोर किया " जो कुछ तुमहारे पास है वह ख़र्च हो जाने वाला है और जो कुछ अल्लाह के पास है वह बाक़ी रहने वाला है और हम जरूर सब्र से काम लेने वालों को उनके उत्तम कर्मों के अनुसार अच्छा बदला देंगे " ( सूराः16,आयतः96)
तो जब भी मुझे कोई मुल्यवान् पदार्थ प्राप्त होता है, मैं उसे अल्लाह के लिए बलिदान कर देता ताकि वह उसे अपने पास सुरक्षित रखे।
चौथी बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो मैं ने पाया कि प्रति व्यक्ति अपने धन-दौलत,ऊंची जाती,पर घमंड-गुरूर करता है। फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गो़र किया " ऐ लोगो, हमने तुम को एक मर्द तथा एक औरत से पैदा किया और फिर तुमहारी कौमें और बरादरियाँ बना दीं ताकि तुम एक दुसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुम में सब से अधिक प्रतिष्ठित वह है जो तुम में सब से अधिक परहेजगार है " (सूराः49,आयतः13)
तो मैं अपने प्रति काम में अल्लाह का भय रखा ताकि अल्लाह के पास अधिक प्रतिष्ठित रहूँ।
पांचवी बात
मैं ने लोगों को देखा कि वह एक दुसरे को बुरा और धुदकारते हैं,इस की वास्तविक कारण ईर्ष्या है। फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गो़र किया " दुनिया की ज़िन्दगी में इनके जीवन-यापन के साधन तो हमने इनके बीच बांटे हैं, "(सूराः43, आयतः32)
तो मैं ने ईर्ष्या छोड़ दिया और समझ गया कि धन-दौलत अल्लाह की ओर से है और हम अल्लाह के बंटवारे से प्रसन्न है।
छटी बात
मैं ने लोगों को देखा कि वह एक दुसरे से वैर रखता है,एक दुसरे पर अत्याचार करता है,एक दुसरे का रक्त पात करता हैं, फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गो़र किया " शैतान तुमहारा दुश्मन है, तुम उसे दुश्मन जानो "(सूराः35,आयतः6)
तो मैं ने मानव से वैर छोड़ दिया और शैतान से दुशमनी कर ली है।
सातवी बात
मैं ने मानव की ओर देख कर धयान दिया तो मैं ने पाया कि प्रति व्यक्ति रोज़ी की खोज में संलग्न है और जीविका की तलाश में खूब जतन करता है और जीविका के कारण बुरे पद पर चलने लगता है फिर मैं ने अल्लाह के कथन पर धयान दिया " और धरती पर चलते-फिरते जितने भी जानदार हैं सभी की रोजी अल्लाह ताला पर है "(सूराः11,अयतः6)
तो मैं समझ गया कि मैं भी अल्लाह के जानदारों में से एक जानदार हूँ, इस लिए अपने आप को उन चीज़ों में निरत रखा जो उस के पास है और बेकार चीज़ों से दूर रहा।
आठवी बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो मैं ने पाया कि हर व्यक्ति अनेक व्यक्ति पर विश्नास करता है, उस के धन-दौलत पर निर्भर करता है,उस के सामग्रियों पर विश्वास करता है, उस के तनदुरुस्ती पर विश्वास करता है, और मैं ने अल्लाह के इस संदेह पर चिन्तापुर्वक व्याख्य किया " और जो अल्लाह पर भरोसा करेगा उस के लिए वह काफी है "(सूराः65,आयतः3)
तो मैं मानव पर भरोसा छोड़ कर केवल अल्लाह पर ही विश्वास करता हूँ।
शिक्षकः अल्लाह आप के पराक्रम में ज़ियादा करे, मैं तुम से प्रसन्न हूँ ,
जान लें
निसःसंदेह जीविका अल्लाह के हाथ में है।
स्वस्थ तथा रोग अल्लाह की ओर से है।
कष्ट और परिक्षा अल्लाह की ओर से है।
कष्ट और परिक्षा से मुक्ति भी अल्लाह की ओर से है।
तो अपनी सर्व ज़रूरत उसी से मांगे,
जान लें
यह संसार एक चक्री की तरह है। धनीवान को ग़रीब और ग़रीब को धनीवान बनाता है, ऊंचे पद वाले को नीचा और नीचे पद वाले को ऊंचा करता है। तो आप अपनी वास्विक्ता को न भूलें और घमंढ और अहंकार से दूर रहें,
याद रखें
किसी पर अत्याचार न करें,किसी से बैर न रखे, किसी की हत्या न करें,किसी को धोखा न दें, यह दुनिया प्रलोक की खेती है जो यहाँ बोइगा उस का फल प्रलोक में काटेगा,और इश्वर के समक्ष अपने प्रति कर्मों का हिसाब देना पड़ेगा।
पर्मेश्वर से प्राथ्ना है कि हमें तथा आप को पुन्य करने की शक्ती दे,दुनिया में उत्तम जीविका , स्वस्थ शरीर , और अपने आज्ञा के अनुसार चलने की उत्साह दे।
जीवन के लिए महत्वपूर्ण बातें
जीवन के लिए कुच्छ महत्वपूर्ण बातें
पहले जमाने में लोग शिक्षा के लिए गुरू के घर पधारते थे । एक गुरू की शिक्षा लेने के बाद दुसरे गुरू के पास जाते थे। इसी प्रकार की यह एक सही कहानी है।गुरू तथा छात्र के बीच होने वाली बात-चीत को धयान से पढ़े और अपनी जीवन में इस का लाभ उठाए।
गुरूः तुम कितने साल से मेरे साथ रह रहे हो ?
छात्रः 33 वर्ष
शिक्षकः इस अवधि में तुमने किया ज्ञान प्राप्त किया ?
क्षात्रः 8 बातें का ज्ञान प्राप्त हुआ।
शिक्षकः बड़े खेद से कहते हैं। तुमहारे साथ मेरी आयु खतम
हो गई परन्तु तुमने आठ ही चीजें सीखा है।
क्षात्रः मान्य गुरू जी, मैं ने केवल इनही चीजों का ज्ञान प्राप्त किया है और मुझे झूट बोलना पसन्द नही है।
शिक्षकः जो सीखा है, मुझे बताओ ?
क्षात्रः पहली बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो पाया कि हर कोई अपने प्रिय से प्रेम करता है प्रन्तु जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसका प्रिय उसे छोड़ जाता है। इसी लिये मैं ने पुण्य को अपना प्रिय बनाया ताकि जब मेरी मृत्यु हो तो मेरे साथ हो।
दुसरी बात
मैं ने अल्लाह के इस कथन पर चिन्ता किया"और जिसने अपने रब के सामने खड़े होने का डर रखा था और जी को बुरी इच्छाओं से रोके रखा था,जन्नत(स्वर्ग)उसका ठिकाना होगा"( सूराः79,आयतः42)
इसी कारण मैं ने अपने जी को बुरी इच्छाओं से दूर रखने में बहुत संघर्ष किया है अब मेरा हृदय अल्लाह की आज्ञा में लगा रहता है।
तीसरी बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो मैं ने पाया कि प्रति व्यक्ति अपने बहुमूल्य पदार्थ को सुरक्षित रखता है ताकि वह नष्ठ न हो, फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गोर किया " जो कुछ तुमहारे पास है वह ख़र्च हो जाने वाला है और जो कुछ अल्लाह के पास है वह बाक़ी रहने वाला है और हम जरूर सब्र से काम लेने वालों को उनके उत्तम कर्मों के अनुसार अच्छा बदला देंगे " ( सूराः16,आयतः96)
तो जब भी मुझे कोई मुल्यवान् पदार्थ प्राप्त होता है, मैं उसे अल्लाह के लिए बलिदान कर देता ताकि वह उसे अपने पास सुरक्षित रखे।
चौथी बात
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो मैं ने पाया कि प्रति व्यक्ति अपने धन-दौलत,ऊंची जाती,पर घमंड-गुरूर करता है। फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गो़र किया " ऐ लोगो, हमने तुम को एक मर्द तथा एक औरत से पैदा किया और फिर तुमहारी कौमें और बरादरियाँ बना दीं ताकि तुम एक दुसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुम में सब से अधिक प्रतिष्ठित वह है जो तुम में सब से अधिक परहेजगार है " (सूराः49,आयतः13)
तो मैं अपने प्रति काम में अल्लाह का भय रखा ताकि अल्लाह के पास अधिक प्रतिष्ठित रहूँ।
पांचवी बात
मैं ने लोगों को देखा कि वह एक दुसरे को बुरा और धुदकारते हैं,इस की वास्तविक कारण ईर्ष्या है। फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गो़र किया " दुनिया की ज़िन्दगी में इनके जीवन-यापन के साधन तो हमने इनके बीच बांटे हैं, "(सूराः43, आयतः32)
तो मैं ने ईर्ष्या छोड़ दिया और समझ गया कि धन-दौलत अल्लाह की ओर से है और हम अल्लाह के बंटवारे से प्रसन्न है।
छटी बात
मैं ने लोगों को देखा कि वह एक दुसरे से वैर रखता है,एक दुसरे पर अत्याचार करता है,एक दुसरे का रक्त पात करता हैं, फिर मैं ने अल्लाह ताला के कथन पर गो़र किया " शैतान तुमहारा दुश्मन है, तुम उसे दुश्मन जानो "(सूराः35,आयतः6)
तो मैं ने मानव से वैर छोड़ दिया और शैतान से दुशमनी कर ली है।
सातवी बात,
मैं ने मानव की ओर देख कर धयान दिया तो मैं ने पाया कि प्रति व्यक्ति रोजी की खोज में संलग्न है और जीविका की तलाश में खूब जतन करता है और जीविका के कारण बुरे पद पर चलने लगता है फिर मैं ने अल्लाह के कथन पर धयान दिया " और धरती पर चलते-फिरते जितने भी जानदार हैं सभी की रोजी़ अल्लाह ताला पर है "(सूराः11,अयतः6)
तो मैं समझ गया कि मैं भी अल्लाह के जानदारों में से एक जानदार हूँ, इस लिए अपने आप को उन चीज़ों में निरत रखा जो उस के पास है और बेकार चीज़ों से दूर रहा।
आठवी बात,
मैं ने मानव पर चिन्ता किया तो मैं ने पाया कि हर व्यक्ति अनेक व्यक्ति पर विश्नास करता है, उस के धन-दौलत पर निर्भर करता है,उस के सामग्रियों पर विश्वास करता है, उस के तनदुरुस्ती पर विश्वास करता है, और मैं ने अल्लाह के इस संदेह पर चिन्तापुर्वक व्याख्य किया " और जो अल्लाह पर भरोसा करेगा उस के लिए वह काफी है "(सूराः65,आयतः3)
तो मैं मानव पर भरोसा छोड़ कर केवल अल्लाह पर ही विश्वास करता हूँ।
शिक्षकः अल्लाह आप के पराक्रम में ज़ियादा करे, मैं तुम से प्रसन्न हूँ ,
जान लें,
निसःसंदेह जीविका अल्लाह के हाथ में है।
स्वस्थ तथा रोग अल्लाह की ओर से है।
कष्ट और परिक्षा अल्लाह की ओर से है।
कष्ट और परिक्षा से मुक्ति भी अल्लाह की ओर से है।
तो अपनी सर्व ज़रूरत उसी से मांगे,
जान लें,
यह संसार एक चक्री की तरह है। धनीवान को ग़रीब और ग़रीब को धनीवान बनाता है, ऊंचे पद वाले को नीचा और नीचे पद वाले को ऊंचा करता है.
याद रखें,
किसी पर अत्याचार न करें,किसी से बैर न रखे, किसी की हत्या न करें,किसी को धोखा न दें, यह दुनिया प्रलोक की खेती है जो यहाँ बोइगा उस का फल प्रलोक में काटेगा,और इश्वर के समक्ष अपने प्रति कर्मों का हिसाब देना पड़ेगा।
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